Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
आत्मा समीप छे
धर्मीने एक्केय पर्यायमां आत्मा दूर नथी
जे सांभळतां मुमुक्षुने प्रमोद थाय एवा ‘भावि
तीर्थाधिनाथ’ नुं उदाहरण आपीने शुद्धद्रष्टिवंत जीवनुं
स्वरूप समजावतां मुनिराज कहे छे के–अहो, भावि
तीर्थाधिनाथने पोताना समस्त परिणाममां पोतानो शुद्ध
आत्मा समीप ज वर्ते छे; शुद्धात्मानी सन्मुखताथी ते
अभिराम छे–सुंदर छे. ज्यां आत्मानी समीपता नथी त्यां
सुंदरता नथी–सुख नथी. भाई, तारे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
आनंद प्रगट करवा होय तो तुं पण तीर्थाधनाथनी जेम
अंतरमां तारा आत्मानी समीप जा...
(वीर सं. २४९७ आसो सुद ९–१०–११; नियमसार गा. १२७ कलश २१२)

अहो, शुद्ध चैतन्यभावी मारो आत्मा, तेमां मने शुद्ध ज्ञान–आनंदनो ज
परिचय छे, तेमां भवनो परिचय नथी, भवना कारणरूप कोई विभावो साथे मारा
चेतनस्वभावने परिचय नथी, संबंध नथी मारी आत्मअनुभूतिमां मारी शांति ने
आनंदना अनंता भावो भरेला छे, पण रागादि परभावो तो तेमां जरा पण नथी.
अंतरमां आत्माना आवा स्वभावनो अभ्यास करतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान चारित्र ने
मोक्षरूप परिणमन थाय छे, पण भवरूप परिणमन थतुं नथी. पोताना सम्यक्त्वादि
स्वभावरूप परिणमवुं ए तो जीवनो स्वभाव ज छे. ते शुद्धपरिणाममां आत्मा पोते
समीप छे. तेमां रागादिनी समीपता नथी, रागादि तो तेनाथी दूर छे, ने शुद्धस्वभाव
तेमां अत्यंत नजीक (तन्मय) छे.
(–अनुसंधान पृष्ठ २५)