: ३० : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
दरेक कार्य वखते, दरेक परिणाम वखते आत्मानी ज ऊर्ध्वता रहे छे, आत्मा ज मुख्य
रहे छे; रागादिथी आत्मा ऊर्ध्व रहे छे, जुदो रहे छे. आवी द्रष्टिथी शुद्धद्रष्टिवंत जीव
शोभे छे. अहो! आवी द्रष्टिवंत जीव ते तो भविष्यनो भगवान छो; भावि–
तीर्थाधिनाथ अप्रतिहत भावे आत्माने समीप ज राखीने सामायिक वडे मोक्षने साधे
छे. कुदरती आत्मा आनंदमय छे तेनी समीपता थतां आनंदने वेदतो–वेदतो ते आत्मा
मोक्षमां जाय छे. कोई धर्मात्माने पोताना धर्मपरिणाममां आत्मा दूर होय नहीं. जेटला
धर्मपरिणाम छे ते बधाय परिणाममां आत्मा पोते तन्मय वर्ते छे, आत्मा पोते तेवा
स्वरूपे छे. सम्यग्दर्शनमां, ज्ञानमां, आनंदमां सर्व परिणाममां आखो आत्मा वर्ते छे,
दूर नथी रहेतो, जुदो नथी रहेतो. प्रत्येक पर्यायमां धर्मीने समतारसनो आखोय
चैतन्यपिंड हाजराहजूर वर्ते छे.–आवा धर्मात्माना भावमां सदा सामायिक छे.
धर्माक्षनी ज्ञानदशामां सहज परमानंदरूपी अमृतनुं पूर आव्युं छे, आखो
ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा पोते परम आनंदपणे उल्लस्यो छे. तेमां हवे राग–द्वेष केवा?
अशांति केवी? आत्मानी नीकट जईने महा आनंदना वेदनमां जे पर्याय निमग्न थई तेमां
हवे राग–द्वेषादि विकृत होय नहीं, ते तो परम शांत छे. आवा भावनुं नाम सामायिक छे,
ने ते ज परमानंदनो पंथ छे, ते पोते आनंदरूप छे ने मोक्षना परम आनंदने साधे छे.
विकल्पो ज्ञानना स्वभावमां छे ज नहीं, ज्ञानना स्वभावमां आनंदनुं पूर छे,
समभाव छे, पण तेमां रागद्वेषादि विकृति नथी. आत्माना स्वभावना अनंता भावोनो
समरस ज्ञानमां समाय छे; आवो समरसी आत्मा छे, तेना अनुभव वडे सामायिक
प्रगटे छे. पर्याय अंतर्मुख थईने आत्माना शुद्धचैतन्यरसना पानमां तत्पर छे,
निर्विकल्पपणे चैतन्यनो आनंदरस पीवामां ज ते लागेली छे. बीजे क्यांय कोई
परभावमां ते पर्याय हवे लागती नथी. परमवीतरागी सुखना अमृतनो स्वाद जेणे
चाख्यो ते विकारनो झेरी स्वाद लेवा केम जाय? अंतर्मुख ज्ञाननो स्वाद अने विकल्पनो
स्वाद ए बे वच्चे अमृत अने झेर जेवो तफावत छे. ज्ञाननो स्वाद तो परम शांत
रसमय छे, ने विकल्पनो स्वाद आकुळ–अशांत छे. धर्मीजीव ज्ञानवडे आत्माना
आनंदनुं चूसणीयुं चूसे छे. सुखभाव जेमां समायेलो छे एवो हुं छुं–एम ज्ञानी
अंतरमां सुखरसनुं पान करे छे. ते तीर्थंकरोनो अनुयायी छे. तीर्थाधिनाथनो जे सुंदर
मार्ग तेमा चाली रह्यो छे, शोभी रह्यो छे.
धन्य तीर्थाधिनाथ! ‘धन्य एमनो सुंदर मार्ग!