Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : २९ :
अनुभूति नथी तेमां सामायिक केवी? तेमां वीतरागता केवी? तेमां सुख केवुं? तेमां
धर्म केवो? धर्मीने पोतानी बधी पर्यायोमां, ज्ञानमा–श्रद्धामां–चारित्रमां–आनंदमां
सदाय पोतानो शुद्ध आत्मा हाजराहजुर वर्ते छे, एक समय पण ते दूर नथी.
‘वाह! भावि – तीर्थाधिनाथ
जेमां शुद्धआत्मा समीप छे एवी सामायिकना वर्णनमां भावि–तीर्थाधिनाथने
याद करीने मुनिराज कहे छे के अहो, तीर्थंकरोने ते भवमां दर्शन अने चारित्र बंने
अप्रतिहत होय छे; एवा भावि–तीर्थंकरने तेमज तेमना जेवा शुद्धद्रष्टिवंत बधाय
जीवोने ज्ञानमां–श्रद्धामां–चारित्रमां–आनंदमां एम सर्वे भावोमां पोतानो शुद्धआत्मा ज
समीप छे, ते ज शुद्धपरिणाममां तन्मय वर्ते छे. आत्मा पोते पोताना निर्मळ
परिणाममा तन्मय एकाकार वर्ते छे एटले ते ज समीप छे, ने रागादि भावोमां आत्मा
तन्मय वर्ततो नथी तेथी रागादिथी ते दूर छे, जुदो छे.
धर्मात्माने आत्मानी समीपता एक क्षण पण छूटती नथी. अने ज्यां आत्मा
समीप छे एटले के आत्माभिमुख भाव छे त्यां समता ज छे, वीतरागता ज छे. आवुं
वीतरागीकार्य ते ज नियमसार छे, ते ज मोक्षनो मार्ग छे. कोनी समीपतामां आनंद
थाय? के आत्मा पोते सहज आनंदस्वरूप छे एटले मंतर्मुख थईने आत्मानी
समीपतामां ज आनंद वेदाय छे.
हे जीव! सम्यग्दर्शनपर्याय प्रगट करवी होय तो आत्मानी समीप जा. सम्यग्ज्ञान–
पर्याय पगट करवी होय तो आत्मानी समीप जा. आनंदपर्याय प्रगट करवी होय तो
आत्मानी समीप जा. परम समभावरूप सामायिक करवी होय तो आत्मानी समीप जा.
भावि तीर्थाधिनाथ अने बधा शुद्धद्रष्टिवंत जीवो आ रीते आत्मानी समीप जईने, आत्माने
मुख्य राखीने, तेमां एकाग्रता वडे श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र अने सामायिक प्रगट करे छे.
अहो, आवी शुद्धद्रष्टिवाळा आ भावि तीर्थाधिनाथ शुद्धद्रव्यमां अभेद पर्यायवडे
अभिराम छे, सुशोभित छे. शुद्धद्रव्यमां अभेदपरिणतिवडे रागनो अभाव थयो छे तेथी
ते वीतरागपणे शोभता छे–सुंदर छे–मनोहर छे–अभिराम छे, अने भवना भयने
हरनारा छे. अरे, भगवान आत्मा ज्यां अनुभूतिमां नीकट बिराजतो होय त्यां
भवदुःख केवा? ने भय केवो? भगवान आत्मा भवना भयने हरनारो छे.
हुं तो चेतनामय आत्मा छुं–एवी शुद्धद्रष्टि धर्मीने कदी छूटती नथी.