: २८ : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
नथी, सामायिक थती नथी, चारित्र थतुं नथी, श्रद्धा–ज्ञान पण थतां नथी. एककेय धर्म
तेने होतो नथी. आत्माने पोतानुं स्वज्ञेय बनाव्या वगरनुं बधुंय थोथां छे, एना
बहारनां जाणपणां के शुभआचरण ते कोई तेने शाति नहीं आपे. शांति आपनारो
पोतानो आत्मा तेनी तो समीपमां तो जातो नथी, तो तेने शांति क्यांथी मळे?
व्यवहारना परिणाम वखतेय धर्मीने तेमां समीपतां नथी, तेमां तन्मयता नथी,
ते वखते तेनी चेतना तो ते व्यवहारना रागथी दूर ज वर्ते छे ने पोताना शुद्ध
परमतत्त्वनी ज समीपमां वर्ते छे. धर्मीनी चेतनामां पोतानो स्वभाव ज समीप छे, ने
राग दूर छे–जुदो छे. जेने चैतन्यनी समीपता थई छे–शुद्ध परिणतिमां भगवान आत्मा
अनुभवमां आव्यो छे एवा शुद्धद्रष्टिवंत जीवने ज व्यवहार संयमादि साचां होय छे.
शुद्ध आत्मा जेनी द्रष्टिमां वर्ततो नथी, अने एकलो राग ज जेनी परिणतिमां तन्मय
वर्ते छे एवा अज्ञानीने तो व्यवहार पण साचो होतो नथी. एने तो पोतानो आत्मा
दूर छे एटले के अनुभूतिमां आवतो नथी.
मारो आत्मा मने दूर नथी
अरे चैतन्यप्रभु हुं पोते.... माराथी हुं दूर केम होउं? आत्मा पोते पोताने
समीप ज छे, पोते पोताना स्वभावमां ज सत् छे. –आवा आत्मामां जेना परिणाम
तन्मय छे तेने ज धर्म छे. जेनां परिणाम पोताना आत्मामां तन्मय नथी, एटले के जे
आत्मा रागथी जुदी चेतनारूपे परिणम्यो नथी ने रागादि परभावमां तन्मयभावे वर्ते
छे तेने धर्म नथी, शांति नथी, सामायिक नथी. धर्मी तो कहे छे के मारी पर्याये–पर्याये
मारा चैतन्यप्र्रभुना अमृत वरसी रह्या छे, चैतन्यरसना समुद्रमां ज मारी बधी पर्यायो
मग्न छे, मारी कोई पर्याय चैतन्यप्रभु वगरनी नथी, मारी कोई पर्याय रागमां तन्मय
नथी. मारो आत्मा रागथी भिन्न चेतना भावे ज परिणमी रह्यो छे. –आ रीते जेणे
चैतन्यप्रभुने समीप राख्यो, अने जे पोते चैतन्यप्रभुनी समीप गई, ते पर्यायमां राग
रही शके नहीं, रागथी ते पर्याय छूटी पडी गई; एटले वीतरागभावथी ते सुंदर
सुशोभित थई. आवा शुद्ध आत्मद्रष्टिवाळा जीवो अभिराम छे–सुंदर छे–मनोहर छे.
अहो, तीर्थंकर थनारा आत्मा आवी शुद्धात्मद्रष्टिवडे मनोहर छे, भवभयने हरनारा छे.
ज्यां आत्मानी समीपता छे, आत्मामां एकाग्रता छे त्यां ज साची सामायिक छे.
ज्यां आत्मा नथी त्यां सामायिक केवी? जे परिणाममां पोताना शुद्ध आत्मानी