कारतक: २४९८ आत्मधर्म : २७ :
माटे लोको माटे राजगृही वगेरेना उना पाणीना कुंडमां स्नान करे छे, तेम हे जीव!
आत्माना कषायादि भवरोगने दूर करवा माटे तुं तारा अंतरमां भरेला परम शांत
चैतन्यकुंडमां स्नान कर... तारा बधा रोग मटी जशे.
धर्मात्मा जाणे छे के हुं मारी निर्मळपर्यायनी समीपमां जाउं छुं रागथी हुं दूर
जाउं छुं ने मारी चेतनापरिणतिमां एकाग्र थाउं छुं.
श्रीगुरुनो उपदेश पण आ ज छे के तारा परिणाममां तारा चैतन्यस्वभावी
आत्माने ज तुं मुख्य राख; तेने ज समीप राख, ने एना सिवाय बीजा बधायने दूर
राख. पोतामां शुद्ध आत्मतत्त्वनी आनंदमय अनुभूति थई ते ज परम गुरुओनो
प्रसाद छे. अहो, परम गुरुओए प्रसन्न थईने अमने आवो शुद्धात्मानो प्रसाद
आप्यो.... तेमना अनुग्रहवडे अमने जे शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश मळ्यो तेनाथी अमने
स्वसंवेदनरूप आत्मवैभव प्रगट्यो.
भावि तीर्थाधिनाथनुं उदाहरण आपीने समजावे छे –
अहो, जे भावितीर्थंकर छे, भवभयने हरनारा छे अने रागरहित होवाथी
अभिराम छे–सुंदर छे, एवा शुद्ध द्रष्टिवंत भावि तीर्थाधिनाथने पोताना समस्त
स्वसन्मुख परिणाममां पोतानो शुद्ध परम आत्मा ज ऊर्ध्व छे, ते ज मुख्य छे, ते ज
समीप छे, तेथी तेमने सहज समता साक्षत् वर्ते छे. भावि–तीर्थनायकना उत्कृष्ट
उदाहरण वडे बधा सम्यग्द्रष्टि जीवोनी शुद्धद्रष्टिमां केवो शुद्धात्मां वर्ते छे ते समजाव्युं छे.
धर्मात्माने बधाय परिणाममां पोतानो निरंजन कारणपरमात्मा ज सदाय नजीक छे.
परमगुरुना प्रसादथी आवा कारणपरमात्माने पोते प्राप्त कर्यो छे–अनुभव्यो छे. श्री
गुरुना उपदेशमां जेवुं शुद्ध आत्मस्वरूप बताव्युं तेवुं समजीने पोते प्रगट कर्युंं एटले
निर्मळपर्याय प्रगट करीने तेमां पोते स्थित थयो, रागादि समस्त परभावोथी जुदो
थयो, दूर थयो. आ रीते भावि–जिन भगवंतो निजस्वभावनी समीप थया ने
परभावोथी परांग्मुख थया, तेमने वीतरागी समताभावरूप स्थिर सामायिक सदाय छे;
सामायिक भावरूप पोतानी निर्मळ दशामां ते आत्मा सदाय स्थिर रहे छे; तेथी
भगवानना शासनमां ते आत्माने ज सामायिक कहेल छे.
अहा, ज्यां पोतानो शुद्धात्मा समीप नथी, शुद्धआत्मा जेनी द्रष्टिमां आव्यो
नथी, ते आत्माने दूर राखीने, आत्माने भूलीने गमे ते करे पण तेने शुद्धता थती