Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : ३९ :
सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञान सहित हशे, तेमज अवधिज्ञान पण हशे. हुं देह नहीं,
नारकी हुं नहीं, दुःख हुं नहीं, आ देहना छेदन–भेदनथी मारो आत्मा छेदातो–भेदातो
नथी, हुं तो चैतन्यसुखनो अखंड पिंड शाश्वत छुं–आवी आत्मश्रद्धा नरकमांय तेने
सदाय वर्ते छे, ने ते मोक्षमहेलनी सीडी छे. नरकमां होवा छतांं सम्यग्दर्शनना प्रतापे ते
आत्मा मोक्षना मार्गमां ज परिणमी रह्यो छे. अहो, सम्यग्दर्शननो कोई अचिंत्य
अद्भुत महिमा छे. आवा सम्यग्दर्शनने ओळखीने हे जीवो! तमे पोतामां तेनी
आराधना करो.
रे जीव! दुनियानी वात छोड. दुनिया दुनियामां रही; तुं तारुं आत्मभान करीने
तारा हितने साधी ले. सम्यग्दर्शन शुं छे तेनी दुनियाने खबर नथी; सम्यग्दर्शन बीजाने
इंंद्रियज्ञानथी देखाय तेवुं नथी. अहा, सम्यग्दर्शन थयुं त्यां आत्मामां मोक्षनो सिक्को
लागी गयो, ने परम सुखनुं निधान खुल्ली गयुं. एनो तो जे अनुभव करे एने खरी
खबर पडे. हाथमां आवेल चिंतामणिने कोई मूर्ख दरियामां फेंकी द्ये तो फरी ते हाथमां
आववो जेम मुश्केल छे, तेम चिंतामणि जेवो आ मनुष्यअवतार जो सम्यग्दर्शन वगर
गुमावी दीधो तो भवना दरियामां फरीने तेनी प्राप्ति थवी बहु कठण छे; माटे आ दुर्लभ
अवसरमां बीजी बधी पंचात छोडीने सम्यग्दर्शन करी लेवा जेवुं छे. आ अवसर चुकवा
जेवुं नथी.
आवुं सम्यग्दर्शन जेनुं मूळ छे–एवो वीतरागधर्म ‘दंसणमूलो धम्मो’
जिनवरदेवे उपदेश्यो छे. अढी हजार वर्ष पहेलां महावीर तीर्थंकर आ भरतक्षेत्रमां एवो
ज उपदेश देता हता ने ते सांभळीने अनेक जीवो सम्यक्त्व पामता हता; अत्यारे
सीमंधरादि तीर्थंकर भगवंतो विदेहक्षेत्रमां एवो ज उपदेश आपे छे, ने ते झीलीने
केटलाय जीवो सम्यग्दर्शन पामे छे. अत्यारे अहीं पण आवुं सम्यग्दर्शन पामी शकाय छे.
दरेक आत्मार्थी जीवे आवुं उत्तम कल्याणकारी सम्यग्दर्शन अवश्य करवुं जोईए. माटे हे
विवेकी आत्मा! तुं आ अवसरमां सम्यग्दर्शननुं आवुं माहात्मय सांभळीने सावधान
था ने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर...अनुभवी ज्ञानी पासेथी समजीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर. ते
आ मनुष्य जीवननुं अमूल्य कार्य छे, तेना वगर जीवनने व्यर्थ न गुमाव.
शरीर ने आत्मा भिन्न छे, राग ने आत्मा भिन्न छे; शरीर अने राग