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आनंदरसनो अनंतसागर भर्यो छे. भाई, तारुं चैतन्यतत्त्व आनंदथी भरेलुं छे. तारुं
महाशुद्ध सम्यक्रत्नत्रयरूपे परिणमे छे, एटले के पोते मोक्षमार्गमां स्थित थाय छे.
पहेलांं रागमां एकताथी दुःखमां पीडातो हतो, हवे रागथी भिन्न चेतना वडे आनंदने
अनुभवे छे.
परमात्मतत्त्व पोताथी ज शोभे छे, तेने कोई बीजानी अपेक्षा नथी. वाह रे वाह! जुओ
तो खरा, परमात्मतत्त्व पोते पोताथी केवुं सुशोभित छे! अद्भुत छे. आनंदकारी छे.
आत्मतत्त्वनी स्वानुभूति न थाय. स्वानुभूति तो अंतर्मुख परिणाम छे, ते बर्हिमुख
परिणाम वडे केम थाय? बाह्यवलणथी अंतरमां केम अवाय? अंतरनो मार्ग तो परम
निरपेक्ष, एकल निजस्वभावमां ज समाय छे. चैतन्यचमत्कारी आत्मवस्तु ज कोई
अजब छे–के जे पोते एकलो पोतामांथी ज मोक्षमार्ग काढीने तेमां पोते स्थिर थाय छे,
ने आनंदथी पोते शोभे छे.
सहाय के टेको नथी; आत्मा असहायपणे पोते पोताना चैतन्यधाममां स्वभावथी
टकनारो–शोभनारो–मोक्षमार्गे चालनारो छे. भाई! अंतर्मुख थया वगर आवो मार्ग
नीकळे तेम नथी.
पासे रहेती होय छे–तेमां आपनुं पूरुं सरनामुं लखो; तथा जे काम माटे मनीओर्डर कर्यो
होय तेनी विगत लखो. सरनामा वगर व्यवस्थामां मुश्केली पडे छे. (एक जिज्ञासु–
भाईनो मनीओर्डर रू. ७–४० नो आवेल छे तेओ पूरुं सरनामुं मोकलशो.)