Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १२: आत्मधर्म २४९८: मागशर
विकल्प छतां अमे (वक्ता) तेमां अटकता नथी, ते ज वखते तेनाथी पार
भावश्रुतधारा अंतरमां परिणमी रही छे.–आवी ज्ञानधारापूर्वक आ समयसार कहेवाय
छे. भावश्रुतनी धारा ते भाववचन छे, ने द्रव्यश्रुतमां ते निमित्त छे. एटले आमां ए
वात पण आवी के जेना अंतरमां आवी स्वानुभूतिरूप भावश्रुतनी धारा वर्ते छे ते ज
आ समयसारनो उपदेश दई शके छे. जेना अंतरमां रागथी भिन्न भावश्रुतनी धारा
नथी तेना हृदयमां सिद्धनी भावस्तुति नथी, ने ते जीव समयसारनो यथार्थ उपदेश
आपी शक्तो नथी.
अहा, समयसारमां गंभीर ऊंडा भावो भर्या छे. परमात्माना घरनी आ कथा
छे....ने कहेनारना हृदयमां परमात्मा बिराजे छे–पोताना परमात्माना स्वानुभवसहित
आ वाणी नीकळे छे. वाणी तो वाणीना कारणे परिणमे छे, पण ते परिणमन वखते
पाछळ आत्माना सम्यक्भावश्रुतनुं परिणमन निमित्तरूपे वर्ते छे. ज्ञाननी अनुभूतिने
अनुसरती वाणी नीकळशे. कुंदकुंदाचार्यदेवना हृदय आ समयसारमां भर्यां छे. अहा,
भरतक्षेत्रमां केवळी भगवाननी वाणी आ समयसारमां रही गई छे; तेना भाव
समजतां केवळी प्रभुना विरह भूलाई जाय छे.
एककोर यथास्थाने सूत्रो गोठवाता जाशे...ने ते ज वखते आत्मामां अंदर
भावश्रुतज्ञाननी धारानुं परिणमन चालशे...शुद्धात्माने झीलती अनुभूतिसहित वाणीनुं
परिणमन छे,–ए रीते भाववचन ने द्रव्यवचननी संधिपूर्वक आ समयसारनुं
परिभाषण शरू थाय छे.
समयसारनी शरूआत एटले तो सिद्धपद तरफनां पगलांनी शरूआत!
आराधकभावनी अपूर्व शरूआत थाय एवुं आ समयसारनुं मंगळ छे.
वाह! कुंदकुंदप्रभुने पवित्रता साथे पुण्यनो पण अद्भुत योग तो जुओ! आ
पंचमकाळना मानवी, देहसहित विदेहमां जाय ने साक्षात् तीर्थंकर परमात्माना दर्शन करे,
केवळी अने श्रुतकेवळी भगवंतोनी वाणी सांभळे–ए ते केवो अद्भुत योग! अने वळी
जगतना भाग्ये ते प्रभुए केवळी अने श्रुतकेवळी भगवंतोनी वाणी सांभळे–ए ते केवो
अद्भुत योग! अने वळी जगतना भाग्ये ते प्रभुए केवळी अने श्रुतकेवळी
भगवंतोनी ते वाणी आ समयसाररूपे गूंथी, अखंडधाराए ते समयसार पूरुं थयुं... ने
गुरुप्रतापे आजे बे हजार वर्षे पण ते अखंड