Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2 of 45

background image
३३८
प र म अ न द प्र भ त
‘कषायप्राभृत’ नी महान टीका ‘जयधवला’ मां
आचार्य श्री वीरसेनस्वामी कहे छे के–परमानंदपाहुड और
आनंदपाहुडके भेदसे दोग्रंथिकपाहुड दो प्रकारका है, उनमेंसे केवलज्ञान
और केवल–दर्शनरूप नेत्रोंसे जिसने समस्त लोकको देखलिया है,
और जो राग–द्वेषसे रहित है ऐसे जिनभगवानके द्वारा निर्दोष–
श्रेष्ठ–विद्वान् आचार्योंकी परंपरासे भव्यजनोंंके लिये भेजे गये
बारहअंगोके वचनोंंका समुदाय अथवा उनका एकदेश परमानंद–
दोग्रंथिकपाहुड कहलाता है(जयधवला भाग १ पृ. ३२५)
वीरसेनस्वामीना आ कथनअनुसार समयप्राभुत ते पण
परमानंद–पाहुड छे...जगतना जीवोने माटे सर्वज्ञ जिनेन्द्रभगवाने
सन्तो मारफत आ परमागम द्वारा परमआनंद मोकल्यो छे.
आनंदभाव एकलो तो कई रीते मोकलाय? –एटले जाणे ते
आनंदने आ प्राभृत ग्रंथोमां भरीने मोकल्यो छे...तेथी
परमआनंदनुं निमित्त एवुं आ प्राभृत ते परमानंदपाहुड छे...ने ते
आजेय आपणने परमआनंद आपे छे.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार • संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९८ मागशर (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २९: अंक २