Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९८ आत्मधर्म : ९ :
मनुष्यगति तथा देवगति विषे जे दुःखो भोगव्यां–एने याद करीने जरा विचार
तो करो? एवुं कोई दुःख बाकी नथी रह्युं के जे तमे संसारमां न भोगव्युं होय!
अनंतवार अग्निमां दग्ध थया, अनंतवार पाणीमां डुबी गया, अनंतवार पर्वत उपरथी
पडीने मर्या, अनंतवार शस्त्रोथी छेदाई गया, अनंतवार घाणीमां पीलाणा, अनंतवार
सिंह वाघ वडे खवाया, चक्कीमां पीसाया, अग्निमां रंधाया,–ए बधुं शुं तमे भूली गया?
अनंतवार भूखनी तीव्रवेदनाथी प्राण छोड्या, अनंतवार तरसथी मर्या; ठंडीथी,
गरमीथी, वरसादथी, पवनथी, विषभक्षणथी अने तीव्र रोगनी वेदनाथी अनंतवार
मरण कर्यां; भयथी, शोकथी अनंतवार मर्या; पोतानी स्त्री, पुत्र, मित्र वगेरे बंधुजनो
वडे पण अनंतवार मर्या; तो हवे समाधिना आ अवसरमां मरणथी के वेदनाथी
भयभीत थईने रत्नत्रयने बगाडवा उचित नथी. बहु दुःखोमां अनंत काळ वीताव्यो,
तो अत्यारे आ जराक वेदना आवतां परम धर्ममां शिथिल थवुं उचित नथी. माटे
उत्साहित थईने वीतरागभावे आराधनामां शूरवीर बनो.
–आ प्रकारना उपदेशरूपी कवचवडे क्षपकमुनिने आराधनामां जागृत करे छे.
क्षपकमुनि पण सावधान थई, वेदनाने भूलीने, चैतन्यना वीतरागी शांतरसना
वेदनमां तत्पर थाय छे ने उत्तम आराधनामां अचल रहे छे.
हे मुनि! नरकमां परवशपणे असह्य ठंडी–गरमी असंख्यवर्षो सुधी भोगवी, तो
आ मनुष्य–जन्ममां आवेली ठंडी–गरमी धर्मना धारक जीवे शुं स्ववशपणे समभावथी
सहन करवा योग्य नथी? आ तो समभावथी परिषह सहन करवानो अवसर छे, माटे
परम धैर्य राखो. धैर्यथी नहीं सहन करो ने आकुळता करशो तोपण कर्मो कांई छोडवाना
नथी. माटे थोडा काळनी अल्पवेदनाथी कायर थईने धर्म न बगाडो. नरकनी वेदनाओ
पासे आ वेदना शुं हिसाबमां छे––के तमे कायर थाव छो? अरे, नरकमां ज्यारे
तांबानो धगधगतो लालचोळ रस तमारुं मोढुं फाढीने अंदर रेड्यो ते वखतनी
वेदनानो विचार तो करो! तेनी पासे अत्यारनी तरस शुं हिसाबमां छे?–के तमे
पाणीने याद करो छो? एने बदले अंतरमां निर्विकल्प चैतन्यरसने याद करो...चैतन्यना
आनंदरसना पान वडे तमारी तृषा छीपावो. अनंता दरिया भराय एटला पाणी पीवा
छतां जे तृषा न छीपी, ते तृषाने चैतन्यरसना उपशांत पीणां वडे तृप्त करो.
रे जीव! नरकगतिनी माफक चारेगतिमां शरीर संबंधी, मन संबंधी, मान–
अपमान तथा ईष्टवियोग अनीष्टसंयोग वगेरे संबंधी जे तीव्रदुःख अनंतवार
भोगव्यां