Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९८ आत्मधर्म : ११ :
जीवनने माटे संयमनो नाश करवो उचित नथी. असातानो उदय आव्यो तेने
कोण रोकी शके?–एम जाणीने, हे कल्याणअर्थीजनो! अशुभ कर्मनी उदीरणा थतां
मनमां दुःख न करो. दुःख करवाथी कांई उदय तो नहींं मटे पण फरीने असाताकर्म
बंधाशे. विषाद–कलेश के विलाप करवाथी तो कांई वेदना उपशमती नथी, घटती पण
नथी, संकलेश करवाथी वेदनामां तो कांई फेर नथी पडतो, तेमज बीजो पण कोई फायदो
नथी थतो, मात्र आर्तध्यान थाय छे ने दुष्कर्म बंधाय छे.
जेम आकाशने मूठी मारवी ते निरर्थक छे, ने तेल माटे रेती पीलवी ते निरर्थक
छे, तेम अशुभकर्मना उदयमां विलाप के दीनता करवी ते पण निरर्थक छे, एनाथी दुःख
मटतुं नथी, पण ऊल्टुं दुःख वधे छे ने भविष्यमां दुःखना कारणरूप तीव्रकर्म बंधाय छे.
जेम न्यायवान पुरुष पोते करेलुं करज चुकवतां दुःखी थतो नथी, पण करजथी
छूटकारानो हर्ष माने छे, तेम पूर्वे पोते उपार्जन करेलुं कर्म उदयमां आवतां न्यायमार्गी
ज्ञानीजनो दुःखी थता नथी; समभावपूर्वक वेदीने कर्मनुं ऋण चुकवतां ते आनंद माने
छे. आ दुःखवेदना कोई बीजाए आपेल नथी पण अमारा ज पूर्वकर्मनुं फळ छे––एम
जाणी समभाव राखो, दुःखी मत थाओ.
अरे मुनि! पूर्वे बीजा कोईने आवुं दुःख न आव्युं होय ने एकला तमने ज
आवुं दुःख आव्युं होय–एम तो नथी. दुःख तो संसारमां बधा जीवोने आवे छे, कांई
तमने एकने नथी आव्युं. पूर्वकर्मना उदयथी दुःख आववा छतां समभाव राखीने घणा
जीवो मोक्षमां चाल्या गया; माटे दुःखमां समभाव राखवो योग्य छे. कर्मथी भिन्न
पोताना स्वरूपनुं स्मरण करीने धैर्य धारण करतां ते दुःख टळी जाय छे, अने आराधना
निर्विध्न रहे छे.
अरिहंत–सिद्धभगवंतो, तथा ते क्षेत्रवासी देवो अने समस्तसंघनी साक्षीपूर्वक
करेलुं जे पच्चखाण, तेनो भंग करवा करतां तो मरण श्रेष्ठ छे; केमके व्रतभंगथी तो
लोकमां निंदा थाय, मार्ग बगडे, धर्मनो अपवाद थाय ने परलोकमां पण जीव घणा काळ
सुधी दुःखी थाय. माटे, पंचपरमेष्टीनी साक्षीथी लीधेला संल्लेखना व्रतने हे मुनि! भंग
न करो, –भले देह छूटी जाय. आवा दुर्लभ रत्नत्रय पामीने हवे तेने न बगाडो.
आ समाधिना अवसरे क्षुधाथी पीडित थईने तमे आहारनी वांछा करो छो,––
पण अरे मुनि! ज्यां आत्मिक–सुखरसनो स्वाद छे त्यां आहारादिथी विरक्ति थई