समाधिना अवसरमां हजी आहारनी लालसा नथी छूटती,––तो संसारमां तमे दुःखी
थशो. तमे मानो छो के ‘खोराकवडे आहारनी तृष्णा मटाडीने हुं तृप्त थईश’––पण
अनंतकाळथी आहार करवा छतां जीवने तृप्ति न थई. चक्रवर्तीना भोगोपभोगथी,
कल्पवृक्षना दिव्य आहारथी के असंख्यात वर्षो सुधी देवलोकना दिव्यअमृतना आहारथी
पण जेने तृप्ति न थई, तेने आ तृच्छ अन्नादिकना भोजनथी तृप्ति केम थशे? जेम
अग्नि इंधनवडे कदी उपशांत थतो नथी तेम भोजननी लालसाथी तृप्त जीव खोराकवडे
कदी तृप्त थतो नथी. माटे धैर्य धारण करी आहारनी वांछा छोडो, ने अंतरमां उपयोग
जोडीने अतीन्द्रिय ज्ञानआनंदना स्वाधीन भोजन करो...तेना अनुभवथी ज जीवने
परम तृप्ति थशे.
छतां क्षुधा न मटी, तो हवे जे कंठगतप्राण छे ते किचित् आहारथी केम तृप्त थशे? माटे
ए पौद्गलिक आहारनी अभिलाषा छोडीने चैतन्यना संतोषरूप परम अमृतनुं
आस्वादन करो. जे आहार अनंतवार भोगवाई चुक््यो छे तेनुं हवे शुं आश्चर्य छे! पूर्वे
न भोगवेलानी अभिलाषा थाय ते तो ठीक, परंतु एवो तो कोई आहार नथी के जे पूर्वे
अनेकवार न भोगवायो होय. आहारनी अति गृद्धतावाळो जीव अनेक प्रकारे आरंभ
करे छे ने आकुळताथी दुःखी थाय छे. अरे, एवा ते कोण मुनि होय के आहारना
अल्पकालिक स्वाद खातर चैतन्यस्वादना दीर्घकालिन महानसुखथी चलित थाय?
संसारमां जेटलां दुःख छे ते बधाय शरीरना ममत्वने लीधे ज जीव भोगवे छे. हजी पण
जो शरीरमां ममत्वबुद्धि करशो तो संसारपरिभ्रमणनुं महा दुःख पामशो. संसारमां
मरण–समान भय नथी, ने जन्म–समान दुःख नथी, माटे जन्म–मरणथी भरेला
शरीरनुं ममत्व छोडो. समाधिमरणने माटे देहनुं ममत्व छोडीने चैतन्यना चिंतनमां
चित्तने जोडो. ‘शरीर अन्य छे अने जीव अन्य छे’ एवा निश्चयरूप बुद्धिवाळा हे
मुनि! हवे तमे