आत्मा असंयोगी–अविनाशी छे, शरीर अचेतन छे, आत्मा चेतन छे––आम बंनेने
प्रगटपणे अत्यंत जुदा जाणीने, देहथी भिन्न आत्मानो अनुभव करता थका तमे
शरीरनुं ममत्व छोडो. शरीरनी ममता महान दुःख उपजावनारी छे, माटे
ज्ञानभावना प्रगट करीने शरीरनी ममता करवा जेवी नथी. हे मुनिराज! रोगादि
समस्त उपसर्ग–परिषहने निःसंगपणे (–एकत्वस्वभावमां तत्परपणे) सहता थका
तमे संकलेश रहित थईने मोहने जीती ल्यो. जेम रत्नोथी भरेलुं वहाण आखा
दरियाने पार करीने, कांठे आवीने प्रमादथी डुबी जाय, तेम संसारसमुद्रना किनारे
आवेली रत्नत्रयथी भरेली साधुपणारूपी तमारी नौकाने हे मुनि! संकलेश–
परिणामवडे फरी भवसमुद्रमां डुबवा न देशो. त्रणलोकमां सारभूत अने उत्तम
मोक्षसुख देनार एवा आ दुर्लभ साधुपणाने आहारना अल्पसुख–निमित्ते नष्ट न
करो. अल्पकाळ जीवन शेष छे माटे आहारादिनी वांछा छोडी वीतरागताथी परम
संयमनी भावनामां द्रढ रहो.
एवो आ महापवित्र रत्नत्रयमार्ग, ते मार्गने पामीने धन्यपुरुषो आहार–
शरीरादिनी वांछाथी रहित थया थका समाधि पामीने शुद्ध थाय छे,–आराधनावडे
एने संसारनो निस्तार थाय छे. माटे हे कल्याणअर्थी मुनिराज! आ कलेवरकुटिरने
अत्यंत त्यागवा योग्य जाणो, अने देहकलेवर अमारुं नथी–एम ममतारहित थईने
रत्नत्रयमां स्थिर रहो. कर्मना फळमां उदासीन रहीने वेदनाने दुःखरहित सहन करवी
योग्य छे.
उत्साहित थाय छे, अने जेम बीजा देहमां ऊपजेला दुःखनुं वेदन पोताने नथी तेम
आ देहमां ऊपजेला दुःखने पण बीजा देहना दुःखनी माफक ज पोताथी जुदुं देखे छे;
भिन्न चैतन्यनी भावनाथी पोते पोतानी आराधनामां अचल रहे छे. अने बख्तर
पहेरेला योद्धानी जेम शूरवीरपणे एम विचार करे छे के अहा, मारी धीरता देखवा
अने मने आराधनानो उत्साह जगाडवा आ महान ऋद्धिवंत वीतराग मुनि मारी
समीप आव्या छे, तो हवे तेमनी समक्ष प्राण छूटे तो भले छूटे, परंतु धैर्य