Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : माह : २४९८
छोडी व्रतभंवगडे हुं धर्मने लज्जित नहीं करुं. आ प्रमाणे उत्तमपुरुषोना
संसर्गथी कायर पण धैर्यरूप बख्तर धारण करीने कर्म सामे युद्ध करवा तैयार थाय छे.
अभेद्य बख्तर जेवा आ वीतरागी उपदेशने हृदयमां धारण करनार पुरुष कर्मशत्रुने
जीती ले छे. आ रीते वीतरागवचनरूपी कवच सहित थयेला क्षपकमुनि परिषहरूपी
शत्रुथी नहीं भेदाता थका आत्मध्यान करवामां समर्थ थाय छे.
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ए रीते वीतराग गुरुवडे पहेरववामां आवेल जे कवच–बख्तर तेना प्रभावथी
ते क्षपकमुनि श्रुधा–तृषा–रोग–वेदना वगेरे परिषहोने संकलेश वगर परमसमताभावथी
सहन करे छे, अने शरीरमां–क्षेत्रमां–संकलसंघमां–वैयावृत्य करनाराओमां तेमज समस्त
क्षेत्र–काळादिकमां राग–द्वेषरहित वर्तता थका, क्यांय पण परिणामने बांध्या वगर परम
समताभावने प्राप्त करे छे. संसारमां जेटली वस्तु ग्रहणमां आवे छे ते बधी माराथी
अन्य छे, मारुं कांईपण नथी एम सर्वत्र निर्ममत्व भाववडे ते जीव वीतरागी
समभावने पामे छे. कवचवडे धीरता धारण करनारा ते साधु कोई संयोगमां रति–
अरति करता नथी, ईष्ट वस्तुना संयोगमां उत्सुकता के हर्ष नथी करता, ने अनिष्ट
वस्तुना संयोगमां दीनता के विषाद नथी करता. मित्र–स्वजन–शिष्य–साधर्मी बधा प्रत्ये
राग–द्वेष छोडे छे. वीतरागी कवच वडे जेनुं मन आराधनामां द्रढ थयुं छे एवा ते साधु
स्वर्गादिना भोगनी पण वांछा करता नथी. रत्नत्रय मार्गनी विराधना वगर द्रढपणे
आराधनामां तत्पर रहे छे; जीवन–मरण के मान–अपमानमां ते समभावी रहे छे. आ
जगतमां जेटला ईन्द्रियविषयो छे ते तो बधाय पुद्गलपर्यायो छे, अने ज्ञानानंद स्वरूप
एवा माराथी तो ते भिन्न छे, तोपछी हुं कोनामां राग–द्वेष करुं? ए रीते सर्वत्र राग–
द्वेषरहित थईने ते साधु उत्तमार्थ एवी आराधनामां वर्ते छे. मरणपर्यंत गमे तेवी
असाता थाय तोपण निर्मोहपणे ते समभावमां वर्ते छे. ए रीते आचार्य समक्ष जेमणे
उत्तम प्रकारे आत्माने भाव्यो छे एवा ते क्षपकमुनि खेदरहित शूरवीरपणे परम
रत्नत्रयमां आरूढ थईने, चैतन्यमां ज चित्तनी एकाग्रतापूर्वक समाधिमरण करे छे.
जय हो उत्तम रत्नत्रय–आराधनानो.
नमस्कार हो ते आराधक मुनिराज भगवंतने.