Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : ७ :
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[सोनगढ माह वद १२: नियमसार गाथा प०]
नियमसारमां स्वतत्त्वनुं अपूर्व स्वरूप बतावीने तेनुं ग्रहण कराव्युं छे. विभाव
वगरनो आत्मानो स्वभाव, के जे ग्रहवा जेवो छे, जे अनुभववा जेवो छे, जे श्रद्धा–
ज्ञानमां लेवा जेवो छे, अने जे दरेक जीवमां शुद्धपणे बिराजी रह्यो छे, तेनी आ वात छे.
भाई, तें सदा तारा आत्माने विभावरूपे ज अनुभव्यो छे. विभावथी जुदुं तारुं
अस्तित्व तने भास्युं नथी. सुखस्वरूप तो तारुं तत्त्व पोते छे, तेना आश्रये ज तने
सुख थशे. तारा स्वघरनी वस्तु संतो तने बतावे छे. तुं कांई क्षणिक नथी; पर्यायमां
उदयादि भावोना भेद पडे छे तेने स्वद्रव्य कहेता नथी, ते क्षणिक भाव जेटलो तुं नथी.
तारा परमस्वभावनो आधार तारुं द्रव्य–एवो आधार–आधेयनो भेद पण खरेखर
क्यां छे? आधार–आधेयना विकल्पो स्वतत्त्वना अनुभवमां नथी; स्वतत्त्व तो
आधार–आधेयना विकल्पोथी पार छे स्वभाव आधेय ने द्रव्य आधार, एवोय भेद–
विकल्प ज्यां नथी त्यां रागनो आधार आत्मा–ए वात तो क्यां रही? रागभाव तो
चैतन्यभावथी तद्न जुदा छे. अहा, स्वतत्त्वनो कोई परम अद्भुत महिमा छे; तेनुं
श्रवण पण महाभाग्ये मळे छे. स्वतत्त्वना अचिंत्यमहिमानी हवा पण जीवे पूर्वे कदी
लीधी न हती, हवे स्वतत्त्वनुं भान थतां कोई परभावो पोतापणे भासता नथी. अरे,
आत्मा तो कोने कहीए? आ मारो गुण ने हुं तेनो आधार–एटलो विकल्प पण जेमां
पालवतो नथी, विकल्प जेमां प्रवेशी शकतो नथी, आवा आत्माने लक्षमां लेतां
संसारना परभावनो रस ऊडी जाय; ने आत्मा परभावथी छूटीने केवळज्ञानादि
शुद्धभावरूपे परिणमी जाय.
जेओ आत्माना परमसुखना अभिलाषी होय, जेओ मोक्षार्थी होय, तेओ पोताने
एक शुद्ध परम चैतन्यभावरूपे ज सदाय अनुभवो. आवुं तत्त्व ए ज मारुं स्वतत्त्व छे,
ए ज हुं छुं; आवा अनुभव सिवायनुं बीजुं बधुंय माराथी पर छे, ते हुं नथी. चार
भावोना जेटला भेद छे ते बधाय भेदना विकल्पोथी पार मारुं परम तत्त्व शुद्ध
चैतन्यमात्र छे. निर्मळबुद्धिवाळा, उज्वळ चित्तवाळा हे मुमुक्षु जीवो! तमे आवो अनुभव
करो. सिद्धांतमां आवो आत्मा कह्यो छे तेनुं तमे सेवन करो; आवा आत्माना सेवनथी
जरूर तमने मोक्षसुखनो अनुभव थशे, सम्यक्त्वादि अतिअपूर्व सिद्धिने तमे पामशो.