आनंदनो स्वाद आवे छे. आवो स्वाद लईने हे जीव! तुं प्रसन्न था...उज्वळ था..ने
आवा उपयोगस्वरूप आत्माने अनुभवमां ले.
पण छो. अंदर देखतां ज तने, महा आनंद थशे. आवा तत्त्वने देखीने धर्मी कहे छे के–
हवे परभावमां हुं नहीं जाउं...नहीं जाउं...नहीं...जाउं! चेतनपणे ज हुं छुं–एवी
श्रद्धाना सिंहनादथी धर्मी कहे छे के अमारे हवे भव केवा ने दुःख केवा? जेम सूर्यना
प्रकाशमां अंधकार नथी तेम मारा चेतनसूर्यना प्रकाशमां रागादि परभावोना अंधारा
नथी–नथी–नथी.
आनंदना वेदन सहित निःशंक थई जाय छे के बस, सर्वज्ञदेवे जोयेलो आत्मा अमे पण
अनुभवी लीधो छे. जेवो सर्वज्ञप्रभुए जोयो छे तेवो ज अमारो चैतन्यस्वरूप आत्मा
अमे अनुभवी रह्या छीए.
पोताना तत्त्वने देखीने महा प्रसन्न थाय छे. पोतानी वस्तु घणी गंभीर ने घणी महान
छे, पण ते एवी नथी के तेमां ज्ञानवडे पहोंची न शकाय! ज्ञाननी उज्वळता वडे अंदर
आवा चैतन्यतत्त्वने अनुभवी शकाय छे. आत्मा पोताना चैतन्यलक्षणने कदी बदलतो
नथी. लाख प्रतिकूळता वच्चेय ज्ञानी पोताना चैतन्यलक्षणने छोडता नथी, के
चैतन्यलक्षणरूप जे स्वतत्त्व तेनुं लक्ष कदी छोडता नथी. अहा, आवा चैतन्यलक्षणवंत
स्वतत्त्वने तुं आनंदथी अनुभवमां ले.
के जेने लक्षमां लईने अनुभव करतां महा आनंद थाय छे.