Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : फागण : २४९८
तत्त्व छूटुं ने छूटुं चेतनामय छे.–आम अंतरमां देखतांवेंत पोताने परम अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवे छे. आवो स्वाद लईने हे जीव! तुं प्रसन्न था...उज्वळ था..ने
आवा उपयोगस्वरूप आत्माने अनुभवमां ले.
आहा! सर्व प्रकारे तुं प्रसन्न था...कोई प्रकारे दुःखी न था! अरे, चैतन्यमां ते
दुःख होय! राजी थईने आनंदमय चैतन्यतत्त्वने तुं देख! आवो ने आवो तुं अत्यारे
पण छो. अंदर देखतां ज तने, महा आनंद थशे. आवा तत्त्वने देखीने धर्मी कहे छे के–
हवे परभावमां हुं नहीं जाउं...नहीं जाउं...नहीं...जाउं! चेतनपणे ज हुं छुं–एवी
श्रद्धाना सिंहनादथी धर्मी कहे छे के अमारे हवे भव केवा ने दुःख केवा? जेम सूर्यना
प्रकाशमां अंधकार नथी तेम मारा चेतनसूर्यना प्रकाशमां रागादि परभावोना अंधारा
नथी–नथी–नथी.
अहा! चैतन्यनी आवी वात सांभळतां कोण खुशी न थाय! आवा तारा
चैतन्यनो लक्षमां लईने तुं खुशी थई जा. ज्यां आत्मानुं लक्ष थयुं त्यां धर्मी परम
आनंदना वेदन सहित निःशंक थई जाय छे के बस, सर्वज्ञदेवे जोयेलो आत्मा अमे पण
अनुभवी लीधो छे. जेवो सर्वज्ञप्रभुए जोयो छे तेवो ज अमारो चैतन्यस्वरूप आत्मा
अमे अनुभवी रह्या छीए.
अहा! प्रमोदथी तारा चैतन्यनी वात तुं सांभळ तो खरो? आत्मानुं आवुं
सरस स्वरूप सांभळतां अंदर असंख्य प्रदेश प्रमोदथी उल्लसी जाय छे...मुमुक्षु जीव
पोताना तत्त्वने देखीने महा प्रसन्न थाय छे. पोतानी वस्तु घणी गंभीर ने घणी महान
छे, पण ते एवी नथी के तेमां ज्ञानवडे पहोंची न शकाय! ज्ञाननी उज्वळता वडे अंदर
आवा चैतन्यतत्त्वने अनुभवी शकाय छे. आत्मा पोताना चैतन्यलक्षणने कदी बदलतो
नथी. लाख प्रतिकूळता वच्चेय ज्ञानी पोताना चैतन्यलक्षणने छोडता नथी, के
चैतन्यलक्षणरूप जे स्वतत्त्व तेनुं लक्ष कदी छोडता नथी. अहा, आवा चैतन्यलक्षणवंत
स्वतत्त्वने तुं आनंदथी अनुभवमां ले.
आम श्रीगुरुए अत्यंत करुणाथी भेदज्ञान कराव्युं, ते मुजब पोते ज्ञाननी
उज्वळता करीने शिष्य परम प्रसन्न थयो छे, आनंदित थयो छे. चैतन्यतत्त्व ज एवुं छे
के जेने लक्षमां लईने अनुभव करतां महा आनंद थाय छे.
“धन्य गुरु! –के जेमणे परम अनुग्रहज्ञणथी भेदज्ञान करावीने
शिष्यने स्वतत्त्वमां सावधान करीने आनंदित कर्यो.”