Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : ५ :
वीतरागी संतो अपूर्व भेदज्ञान करावे छे
ए भेदज्ञान करीने आत्मा आनंदित थाय छे
(माह वद १२ सोनगढ: समयसार गा. २३–२४–२प)
(विहारना आगला दिवसना प्रवचननी प्रसादी वांचीने आपने आनंद थशे)
जीवनुं स्वरूप, पुद्गलथी भिन्न चेतनारूप छे; आवुं स्वरूप बतावीने आचार्यदेव
कहे छे के हे जीव! तुं तो चैतन्यस्वरूप छो; तुं काई पुद्गलस्वरूप नथी. अंदरमां विचार
करीने देख तो तने तारुं चेतनपणुं देखाशे, ने जड–पुद्गलथी अत्यंत जुदाई अनुभवमां
आवशे.
अरे, क्यां तुं चैतन्यभगवान! क्यां ए अचेतन जड! बंनेने सर्वथा भिन्नता
छे. सर्वज्ञभगवाने चेतनमय जीव जोयो छे, पुद्गल तो जडरूप छे. चेतनतत्त्व
पुद्गलरूप केम थाय? राग पण चेतनता वगरनो छे. चेतनतत्त्व कदी चेतनता छोडीने
रागमय के देहमय थतुं नथी; ने देह के राग कदी चेतनरूप थता नथी. बंनेने तद्न
भिन्नता छे. जेम प्रवाहीपणुं ने खारापणुं तो पाणीमां एकसाथे रही शके छे, तेमां
विरोध नथी; तेम जीवमां कांई चेतनता अने अचेतनताने अविरोधपणुं नथी; जीवमां
जेम चेतनपणुं तो तन्मयपणे सदा रहेलुं छे, तेम कांई रागादिपणुं जीवसाथे तन्मय
वर्ततुं नथी, ते तो जुदुं वर्ते छे. सर्वज्ञदेवे कहेलुं आवुं भेदज्ञान करीने हे जीव! तुं खुशी
था...प्रसन्न था...आनंदित था.
अहो! मारुं चैतन्यतत्त्व तो आवुं सरस, राग वगर शोभी रह्युं छे, ते मारा
गुरुना प्रतापे मने अनुभवमां आव्युं.–आम स्वतत्त्वने देखीने हे जीव! तुं आनंदित
था! ज्यां आनंदमय तत्त्व पोते पोताने अनुभवमां आव्युं त्यां हवे संदेह केवो? खेद
केवो? –संदेह अने खेद छोडीने आवा स्वतत्त्वने आनंदथी अनुभवमां ले.
अनादिकाळथी भूलीने भवमां भटक्यो, छतां मारुं तत्त्व बगडी गयुं नथी, चेतनपणाने
छोडीने जडरूप–रागरूप थयो नथी; चारे बाजुथी, बधा परभावोथी मारुं