Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : ९ :
जगतमां बधी वस्तु जीव पामी चुक्यो, पण पोतानुं चैतन्यतत्त्व पोते कदी अनुभव्युं
नहि तेथी ते दुर्लभ छे भले दुर्लभ छे–ए खरुं, छतां पण ते न जाणी शकाय एवुं नथी,
ते जाणी शकाय छे, ने तेनी ओळखाण वडे ते सुलभ थाय छे. ज्ञानीओने आत्मा
सुलभ छे. अज्ञानीने जगतना विषयो सुलभ लागे छे ने अतीन्द्रिय आत्मा दुर्लभ
लागे छे. आवा एकत्व स्वरूपने जे जाणवा मांगे छे तेने तेनुं स्वरूप आ समयसारमां
आचार्यदेवे बताव्युं छे.
आत्मानुं शुद्ध स्वरूप दुर्लभ छे एम कह्युं, तेथी कांई ते प्राप्त नहि थई शके एम
नथी कहेवुं; पण दुर्लभ छे–माटे तुं अपूर्व भावे तेनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ करजे. दुर्लभ
वस्तुनी अचिंत्य किंमत समजीने तेनी प्राप्तिनी लगनी लगाडतां ते सुलभ थई जशे.
पूर्वे साचा भावे आत्मानुं स्वरूप तें सांभळ्‌युं नथी. सांभळ्‌युं त्यारे रुचि करी नथी; माटे
हवे ज्ञानी पासेथी एवा अपूर्वभावे सांभळजे के पोतानी वस्तु पोताने सुलभ थई
जाय. अरे, पोतानी वस्तु ते पोताने दुर्लभ होय? दुर्लभपणुं ते व्यवहार छे, ने
सुलभपणुं ते निश्चय छे.
पूर्वे अनंतवार आत्मानी वात तो सांभळी छे, –छतां नथी सांभळी–एम केम
कहो छो? तो कहे छे के चैतन्यवस्तु जेवी महान छे तेवी लक्षमां न लीधी, तेनो प्रेम न
कर्यो, तेथी श्रवणनुं फळ तेने न आव्युं, माटे तेणे आत्मानी वात सांभळी ज नथी.
खरेखर सांभळ्‌युं तेने कहेवाय के जेवी चैतन्यवस्तु छे तेवी अनुभवमां आवी जाय.
ते ज प्रमाणे, निगोदमां अनंत जीवो एवा छे के जेने हजी सुधी कान ज मळ्‌या
नथी; छतां अहीं कहे छे के तेणे पण अनंतवार काम–भोग–बंधननी ज कथा सांभळी
छे.–नथी सांभळी, छतां सांभळी केम कहो छो? केमके ते विकथाना श्रवणनुं फळ जे
रागनो अनुभव–ते तेने वर्ते छे. शब्दो भले न सांभळ्‌या, पण सांभळ्‌या वगर एकला
शुभाशुभरागना अनुभवरूपी संसारनी चक्कीमां ते पीलाई रह्या छे; एटले ते पुण्य–
पापनी विकथा ज सांभळी रह्या छे एम कह्युं छे. उपादानमां जेवुं वेदन छे तेवुं ज
श्रवण कह्युं. चैतन्यना एकत्वने जे नथी अनुभवतो तेणे चैतन्यनी वात सांभळी ज
नथी, रागने एकत्वपणे जे अनुभवे छे ते रागनी कथा ज सांभळी रह्यो छे–भले
भगवानना समवसरणमां बेठो होय! भावश्रवण तेने कहेवाय के जेवुं श्रवण कर्युं तेवा
तत्त्वने अनुभवमां ल्ये. बापु! तारा अनुभवमां आवी शके एवुं तारुं तत्त्व छे,