अनुभवाय छे ते हुं छुं, ने जे रागादि पुण्य–पापपणे अनुभवाय छे ते मारुं स्वरूप
नथी.–आम चेतननी अनुभूति स्वरूपे पोताने जाणीने श्रद्धा करवी के ‘आ अनुभूति ज
हुं छुं’ –ते सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; आवा ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक आत्मामां निःशंक
स्थिति थाय छे. –आ रीते साध्य आत्मानी सिद्धि थाय छे; बीजी कोई रीते आत्मानी
सिद्धि थती नथी.
समजीश? अहा, आवो अचिंत्य आत्मा, वाणीथी अगोचर, तेनुं स्वरूप अनुभवमां
लेवा माटे तो उपयोग केटलो एकाग्र करवो जोईए? जेनुं भान थतां अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवे तेना महिमानी शी वात! अरे, एकवार आवा आत्माने लक्षमां
तो ले! जेनी जात पाप अने पुण्य बंनेथी जुदी, जगतना कोई पदार्थ साथे जेनी
सरखामणी न थई शके–एवो आत्मभगवान तुं पोते, तेने ज्ञानमां लेतां ज अतीन्द्रिय
आनंदनो महान स्वाद आवे छे. जेम शेरडीमां मीठोरस भर्यो छे, शेरडी पोते ज मीठी
छे, तेम चैतन्यस्वरूप आत्मा पोते आनंदरसमय छे, एनामां सर्वत्र आनंद ज भर्यो
छे. जेने जाणतां ज आनंदनां अपूर्व झरणां झरे, ने भवना दुःख छूटी जाय. रागथी पार
वीतरागी सुखनो भंडार आत्मा पोते छे.
तेमां आवीने विसामो ले. चैतन्यतत्त्वने जाणतां ज अनंतकाळना तारा थाक ऊतरी
जशे, ने चैतन्यनुं अपूर्व सुख तने अनुभवमां आवशे. अरे, एकवार तारा स्वरूपने
झांखीने जो तो खरो; बहारना विषयोने तुं अनुसरी रह्यो छे, तेमां तो दुःख छे, तेने
बदले तारा आनंदस्वरूपने अनुसर, ने तेनो अनुभव कर, तो तने महा आनंद थशे.
‘अनुभवीने एटलुं रे...आनंदमां रहेवुं रे...भजवा परिब्रह्मने, बीजुं कांई न कहेवुं रे...’
भाई, करवा जेवुं तो आ छे. परमब्रह्म आ आत्मा पोते छे, तेने ओळखीने तेने
भजवो. आखो चैतन्यना आनंदनो पहाड तुं पोते छे, पण रागमां