Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : फागण : २४९८
कलशनुं स्थापन सौ. डो. तरलिकाबेनना सुहस्ते थयुं, तथा चार ईन्द्र–ईन्द्राणीनी
स्थापना थई; आचार्यअनुज्ञानी विधिमां भक्तोए पोतानी भावना गुरुदेव समक्ष
व्यक्त करी के अहो! आवा वीतरागी देवगुरुधर्मनी प्रभावना माटे, ने चंचळ लक्ष्मीनो
मोह घटाडवा माटे अमे जिनेन्द्रदेवनी प्रतिष्ठानो महोत्सव करवा मांगीए छीए...ते
माटे हे गुरु! आज्ञा आपो! ए प्रमाणे गुरुदेवना मंगल–आशीषपूर्वक प्रतिष्ठा–
महोत्सव शरू थयो. ईन्द्रोए यागमंडल विधानद्वारा नव देवोनुं (अरिंहत, सिद्ध,
आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनालय, जिनबिंब, जिनवाणी अने जिनधर्म–ए नव देवो
पूज्य छे तेमनुं) पूजन कर्युं.
फागण सुद ४नी सवारे प्रवचन बाद ईन्द्रोनुं सरघस जिनपूजन माटे नीकळ्‌युं,
साथे १०८ मंगळ कळशो सहित जलयात्रा नीकळी हती; भक्तिना उमंगभर्या
वातावरण सहित जिनमंदिरे आव्या...भक्तोथी ऊभराई रहेलुं मंदिर शोभतुं
हतुं...काले तो आ मंदिरमां जिनेन्द्रभगवान बिराजशे, ने धर्मात्माओ भक्तिभावथी
प्रभुजीने पूजशे. सांजे ईन्द्र–ईन्द्राणी द्वारा निजमंदिरनी वेदी–कळश–ध्वज शुद्धिनी विधि
थई; तेमां केटलीक मुख्य विधि पूज्य बेनश्री–बेनना सुहस्ते थई हती. आ प्रसंगे
भक्तजनोनो महान आनंद–उल्लास, नानकडा मंदिरमां तो समातो न हतो. अमरेलीनुं
जिनमंदिर बराबर टावरनी सामे, मुख्य बजारनी मध्यमां एवुं शोभी रह्युं छे के
बजारमां ठेठ टावर पासेथी पण प्रभुना दर्शन थाय छे. जिनमंदिरनी घणा वर्षोनी
भावना फळी तेथी अमरेलीना भक्तजनो हर्ष अने तृप्ति अनुभवता हता. जिनमंदिर
माटे तथा प्रतिष्ठामहोत्सव माटे खास करीने भाईश्री प्रवीणभाई डोकटर अने तेमना
परिवारे, तथा कमाणी परिवारे अने खारा कुटुंबना परिवारे हर्षोल्लासपूर्वक भाग
लीधो हतो. प्रवीणभाई डोकटरे तो भरलत्तामां आवेलुं पोतानुं किंमती मकान
जिनमंदिर माटे अर्पण करी दीधुं हतुं. अहा, अमारुं घर जिनेन्द्रभगवाननुं धाम बने–
एना जेवुं रूडुं शुं! एम भक्तिभावथी तेमणे पोतानुं मकान विनामूल्ये आप्युं छे.
अमरेली पू. श्री शांताबेननुं गाम होवाथी, जिनेन्द्रभक्तिनी घणी तमन्नापूर्वक
तेओश्रीए जिनमंदिरना बधा कार्योमां उल्लासपूर्वक प्रेरणा आपी हती. तथा शेठश्री
नरभेरामभाई कामाणीए स्वहस्ते आ जिनमंदिरनुं शिलान्यास करीने जिनमंदिरना
कार्यमां प्रोत्साहन आप्युं हतुं. आम गुरुदेवना प्रभावना योगे धर्मकार्यमां चारे तरफथी
सुयोग बनी गयो हतो. भरबजार वच्चे रस्तामां चालतां–चालतां पण
जिनभगवानना दर्शन थाय–एवी जिनमंदिरनी रचना देखीने हर्ष थाय छे... के “हरतां
फरतां प्रगट प्रभुने देखुं रे...मारुं जीव्युं धन्य थयुं लेखुं रे.” साधकने