सिंहदादाए कूवामां पोतानी छाया देखीने तेने ज साचो सिंह मानी लीधो ने तेनी साथे
लडवा कुवामां झंपलावीने डुबी मर्या.
छाया पर सिंहे पंजो मार्यो, त्यां तो उपरनो वांदरो ध्रूजी ऊठ्यो, ने ‘सिंह मने मारी
नांखशे’ एवा भयथी नीचे पड्यो. एम तुं पण हमणां नीचे पडवानो छो.
नहि होय के हुं सोनगढना आंबावनमां रही आव्यो छुं. ए सोनगढमां एक महात्माना
प्रतापे भेदज्ञानना वायरा वाई रह्या छे; त्यांना मनुष्यो तो जड–चेतननुं भेदज्ञान
करनारा छे, ने ते देखीने मारा जेवा वांदराने पण देहने आत्मानी भिन्नतानी भावना
जागी छे. हवे, छायाने पोतानुं रूप मानीने प्राण गुमाववाना मूर्खाईना जमाना गया.
तमे तमारे छाया उपर गमे तेटला पंजा मारोने, हुं तो छायाथी जुदो निर्भयपणे मारा
स्थाने बेठो छुं.
भिन्नताना भानथी आ वांदराने केवी निर्भयता छे! तो पछी, देह अने आत्मानी
भिन्नता जाणवाथी तो केवी निर्भयता थाय! आम सिंहने विचारवानुं परिवर्तन थयुं.
काळरूपी सिंहनो पण भय रहेतो नथी; काळरूपी सिंह आवे के मृत्यु आवे, तोपण तेने
पाछो वाळी द्ये के अरे काळ! तुं चाल्यो जा...मारी पासे तारुं जोर नहि चाले; तारो पंजो
मारा उपर नहि चाले, केमके हुं कांई देह नथी, हुं तो अविनाशी आतमराम छुं;
मृत्युरूपी सिंह मने मारी शके नहीं.