: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : २१ :
भवमां आवतो नथी; रागादि अशुद्धभावरूपे ज ते पोताने अनुभवे छे. एवा
जीवोने साध्य आत्मानी सिद्धि थती नथी. रागादि समस्त विभावोथी जुदुं,
चेतनस्वभावपणे जे अनुभवाय छे ते ज हुं छुं–आवा भिन्न आत्माना अनुभवमां तो
आत्माना अनंतगुणनो स्वाद समाई जाय छे. एवा स्वादथी ज्यां आत्माने ओळख्यो
त्यां जीव पोते पोताना स्वरूपमां निःशंक ठरवाने समर्थ थयो. ए रीते भेदज्ञानवडे तेने
साध्य आत्मानी सिद्धि थाय छे.
ज्ञानना अनुभवमां वगरनुं परनुं गमे तेटलुं जाणपणुं होय–तेने ज्ञान कहेता ज
नथी, तेमां ज्ञाननुं सेवन नथी, तेमां तो रागादि परभावनुं. सेवन छे. भाई, तें शास्त्रो
भले जाण्या, पण शास्त्रमां कहेलुं के रागथी भिन्न ज्ञान, ते ज्ञाननुं सेवन तें कदी कर्युं
नथी, अने त्यां सुधी तारी श्रद्धा के आचरण पण साचुं थतुं नथी. आत्माना ज्ञाननुं
सेवन तो रागथी पार छे ने शास्त्रना परलक्षी जाणपणाथी पण पार छे; ए तो
अंतरनी अतीन्द्रियवस्तु छे. आत्माने जाणवो होय तो अतीन्द्रिय–प्रत्यक्षज्ञानवडे ज
जणाय छे. अतीन्द्रिय ज्ञान सहितनुं श्रद्धान ते ज सम्यग्दर्शन छे; ने पछी ज
चारित्रदशा होय छे. चारित्रदशा जेने थई ते तो भगवान थई गयो. चारित्रना
महिमानी जगतने खबर नथी; चारित्र पहेलांं आत्माना ज्ञान–श्रद्धान केवा होय तेनी
पण जगतने खबर नथी. आ तो आत्माने साधवाना अंदरना अलौकिक मार्ग छे–जेना
राजी था
आत्माने राजी थवुं छे.
आत्मा राजी क्यारे थाय?
पोते आनंदमां आवे त्यारे.
पोते स्वभावमां ऊतरीने अनुभव करे त्यारे
आत्मा आनंदमां आवे अने त्यारे
ते खरेखरो राजी थाय.
ए सिवाय दुनिया भेगी थईने
आत्माने राजी करी द्ये–एम नथी.
जो दुनियाना वखाणथी तुं राजी थवा
जईश
तो तुं छेतराईश.
माटे, दुनियानी दरकार वगर तुं एकलो
तारामां राजी था!
अहो, मारुं तत्त्व ज एकलुं–एकलुं महा
आनंदरूप छे,–एम तारा सुंदर तत्त्वने
देखीने ताराथी ज तुं राजी था.