Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 26 of 45

background image
: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : २३ :
भावो छे ते बधा रागादि भावोमां क्यांय शांति नथी, तेमां तो आकुळता छे.
ज्ञानानंद स्वरूप आत्माना वेदनमां ज शांति छे. एवी शांति आत्माने केम थाय, ने
दुःखना दावानळथी आत्मा केम छूटे? ते वात आ समयसारनी ७३ मी गाथामां छे:–
छुं एक शुद्धममत्वहीन हुं ज्ञानदर्शन पूर्ण छुं,
एमां रही स्थित लीन एमां शीघ्र आ सौ क्षय करुं.
शिष्यने प्रश्न एवो उठ्यो छे के प्रभो! दुःखदायक एवा अज्ञानमय शुभाशुभ
आस्रवोथी आ आत्मा केम छूटे ने आनंदनुं वेदन केम थाय? अरे, दुःखथी छूटवानो
आवो प्रश्न पण कोईक विरला जीवोने ज ऊठे छे. एवा जीवने आचार्यदेव तेनी विधि
समजावे छे. भगवानना समवसरणमां जईने कुंदकुंदभगवान अमारा माटे आ
अनुभवनुं भातुं लाव्या छे; मोक्षने माटे सर्वज्ञभगवाननो सन्देश आ समयसारमां छे.
हे आत्मा! तुं पहेलांं तारा आत्मानो निर्णय कर. हुं आत्मा रागथी पार मारा
ज्ञानना स्वसंवेदनथी अनुभवमां आवुं तेवो छुं. आवो निर्णय करवो ते चैतन्य
पाताळमांथी आनंदना पाणी काढवानी रीत छे. अहा, आवा चिदानंद आत्मानी वात
प्रेमथी जे सांभळे छे ते पण अल्पकाळे तेनो अनुभव करीने मोक्षने पामे छे. स्वसंवेदन
ज्ञानमां ज प्रत्यक्ष थाय एवो महान आत्मस्वभाव छे, आवा स्वभावने रागना
विकल्पथी प्राप्त थवानुं मानवुं ते तो कोई अबजोपतिने रांको–भीखारी मानवा जेवुं छे.
अरे बापु! आवडुं मोटुं तारुं तत्त्व, जेना स्वानुभव माटे एक विकल्पनी पण अपेक्षा
नथी, तेने लक्षमां लेता तारो आत्मा रागादि परभावोथी पाछो वळी जशे ने तने
महान आनंद प्रगट थशे. तारा आत्माने ओछो मानीश नहि, विकल्पवाळो मानीश
नहि, ज्ञान–दर्शन–आनंद स्वभावे पूरो तुं छो. तारुं स्वरूप मात्र अनुभवगम्य छे,
विकल्पगम्य नथी.
चैतन्यतत्त्व चमत्कारिक वस्तु छे, ए चैतन्यनो चमत्कार एवो अलौकिक छे के
एनो स्पर्श (अनुभव) थतां ज आत्मानो अदभुत वैभव प्रगटे छे ने अनादिनुं
दुःख टळे छे. आवा आत्मानो पहेलांं निर्णय करवो. निर्णय करीने अनुभवमां
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष थतां जे आनंद आवे, तेनुं वर्णन वचन द्वारा थई शके नहि,
विकल्पथी पण ते पार छे. सीधो अनुभवगम्य थाय एवो आत्मा छे.
पर तरफना भावोमां जेने दुःख लाग्युं होय ने अंतरमां सुखस्वभाव छे तेनुं
वेदन करवा जे झंखतो होय, एवा शिष्यनो प्रश्न छे के प्रभु! आ दुःखथी हुं केम छूटुं?
अनादिथी हुं आ दुःखने वेदी रह्यो छुं तेनाथी हवे केम छूटुं? ने अंतरमां मारा