Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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हे ज्ञान! तुं जगतमां केटलुं महान छो! केटलुं शांत छो! तने
तारी शांतिना वेदनमां कोई प्रतिबंध करी शके नहीं. अहा, आवुं
मारुं ज्ञान सदा मारी साथे ज रहे त्यां राग–द्वेष केवा?
जो रागमां ज्ञानने न भेळवो, ने एकला रागने मात्र
रागरूपे ज जुओ, तो ते राग तद्न अचेत, शांति वगरनो, सुख
वगरनो, कांई पण किंमत वगरनो ज देखाय छे; आत्मा साथे जाणे
तेने कांई ज संबंध न होय एटले ते स्पष्ट जुदो देखाय छे; ने ते
रागमां जराय मजा आवती नथी.
अने ज्यां रागने जुदो करीने एकला–ज्ञानने देख्युं त्यां ते
ज्ञान महान चैतन्यरसथी भरेलुं, परमशांत, सुखी अने अचिंत्य
गंभीर–महिमावाळुं अनुभवाय छे. अहा, आवुं ज्ञान ते हुं,–जेमां
रागद्वेषनोय स्पर्श नहीं–त्यां दुनियाना बीजा प्रसंगोनी शी वात!
आवा ज्ञानतत्त्वरूपे पोतानी भावना करनार आत्मा
आ जगतमां सुखी छे–धन्य छे.
जीवने आत्महितनी भावना जागे ते उत्तम छे. साधर्मीना
संगे आत्महितनी भावना पुष्ट कर्यां करवी. धर्मात्माओनुं
चैतन्यस्पर्शी जीवन देखीदेखीने आत्मार्थ पुष्ट थाय छे; तेथी
आत्मार्थीने सत्संग अत्यंत जरूरी छे.
बाकी जीवनमां ‘आत्मार्थभाव’ ते ज मुख्य वस्तु छे.
अंतरमां केटली लगनी छे तेना उपर बधो आधार छे.
सादाई ब्रह्मचर्य वगेरे आत्मार्थनी पुष्टि माटे छे....मुख्यवस्तु तो
अंतरनो आत्मार्थ ज छे.
मुमुक्षुनेय जीवनमां अनेक विध प्रसंगो आवे छे. मान–
अपमान, संयोग–वियोग, वगेरे प्रकारे अनेक कटोकटी आवती होय
छे, तेनी वच्चे आत्मार्थनुं जोर टकावी राखवुं, ते मुमुक्षु जीव ज करी
शके. अने तेनी पाछळ तत्त्वना निर्णयनुं खूब जोर होय छे.
आत्मबळे मुमुक्षु पोताना ध्येय तरफ आगळ वध्ये जाय छे. मुमुक्षुने
चारे अनुयोगना वीतरागी शास्त्रनो अभ्यास उपयोगी छे, तेना
द्वारा आत्महितनी ज भावना पोषाय छे.