Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : “आत्मधर्म” : प्र. वैशाख २४९८ :
तमने सुखनी दाता छे, बीजुं कोई हितकर नथी. पूर्वे घणा मुनिराज थई गया छे के
जेमणे महान स्थिरता धारण करी, अने घणा उपसर्ग आववा छतां उत्तम भावनापूर्वक सहन
करीने, अखंड आराधना अंतरमां धारण करी.
(३०) तिनमें कछुईक नाम कहूं मैं, सो सुन जिय चित लाके,
भावसहित अनुमोदै जो जन, दुर्गति होय न ताके.
अरु समता निज उर में आवे, भाव अधीरज जावे,
यों निश दिन जो उन मुनिवरको, ध्यान हिये बिच लावे.
ते आराधक मुनिओमांथी केटलांकनां नाम अहीं कहुं छुं; ते सांभळी, मुनिओने चित्तमां
लावी जे जीव भावसहित अनुमोदे छे तेने कदी दुर्गति थती नथी. निशदिन ते मुनिवरोने
पोताना हृदयमां जे ध्यावे छे तेने अंतरमां समता प्रगटे छे ने आकुळ भाव टळी जाय छे.
(३१) धन्य–धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसी धीरज धारी,
एक स्यालिनी जुग बच्चा–जुत, पांव भख्यो दुखकारी
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी,
तौ तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु–महोत्सव भारी.
अहा, धन्य छे ते सुकुमार महामुनि;–तेमणे केवी अद्भुत धीरज राखी! बे बच्चां सहित
एक शियाळवी तेमनो पग खाधो. आवा दुःखकर महा उपसर्गने पण स्थिरतापूर्वक सहन करीने
तेमणे अखंड आराधनाने चित्तमां धारण करी.–तो अरे जीव! तने तो शुं दुःख छे? तुं मृत्युने
मोटो महोत्सव समजीने तारुं चित्त आराधनामां जोड.
[बाकीनो भाग आवता अंकमां वांचशोजी]
* एक समयमां त्रण *
वस्तुमां उत्पाद–व्यय–ध्रुवता त्रणे एक समयमां छे.
एक समयमां जे त्रणने जाणे ते त्रणकाळने जाणे.