Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : २३ :
(२६) जे जे वस्तु लखत है ते पर, तिनसों नेह निवारो,
पर गति में ये साथ न चालैं, एसो भाव विचारो.
जो परभवमें संग चलै तुझ, तिनसों प्रीत सु कीजै,
पंच पाप तज, समता धारो, दान चार विध कीजै.
बहारमां जे–जे वस्तुओ देखाय छे ते बधी पर छे, परभवमां ते साथे आवती नथी,–
एम विचारीने तेनो स्नेह छोडो. प्रीत तो तेनी करीए के परभवमां जे पोतानी साथे आवे. माटे
पांच पाप छोडो, समता धारो ने चार प्रकारनां दान करो.
(२७) दशलक्षण–मय धर्म धरो हिय, अनुकम्पा उर लावो,
षोडशकारण नित्य विचारो, द्वादश भावन भावो
चारों परवी प्रोषध कीजै, अशन रातको त्यागो,
समता धर दूरभाव निवारो, संयमसों अनुरागो.
अंतरमां अनुकंपा सहित दशधर्मने धारण करो; सदाय सोळ कारणनुं चिंतन करो ने बार
वैराग्यभावना भावो; रात्रिभोजन छोडो, ने चार पर्वतिथिमां प्रौषध करो; समता धारण करीने
दुर्भावने छोडो, ने संयमनी भावना भावो.
(२८) अन्त समय में यह शुभ भाव हि, होवे आन सहाई,
स्वर्ग–मोक्ष–फल तोहि दिखावें, ऋद्धि देहि अधिकाई.
खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उरमें समता लाके,
जा सेती गति चार दूर कर, बसहु मोक्षपुर जाके.
आवी उत्तम भावना ज अंतरसमयमां तने सहायक थशे; ए ज तने स्वर्गमोक्षनी प्राप्ति
करावशे अने महान ऋद्धि आपशे. माटे हे जीव! तुं अंतरमां समता लावीने समस्त खोटा
भावोने छोड; ने ते समता वडे चारे गतिने दूर करीने मोक्षपुर जईने वस.
(२९) मन थिरता करके तुम चिन्तो, चौ–आराधन भाई,
ये ही तोकों सुखकी दाता, और हित् कोउ नहीं.
आगें बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी,
बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी.
हे भाई! मनने स्थिर करीने तमे चार आराधनानुं चिंतन करो; ते ज