Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : “आत्मधर्म” : प्र. वैशाख २४९८ :
अनंतवार शस्त्रप्रहारथी मर्यो ने दुर्गतिमां भम्यो; अग्निमां अनंतवार बळी मर्यो पण हुं
साची मति न पाम्यो; सिंह–वाघ अने सर्पोए अनंतवार अनेक दुःख दीधां.
(२३) बिन समाधि ये दुःख लहे मैं, अब उर समता आई,
मृत्युराजकौं भय नहिं मानो देवै तन सुखदाई,
यातैं जब लग मृत्यु आवे, तब लग जप तप कीजै,
जप–तप बिन ईस जगके माहीं, कोई भी नहिं सीजै.
ए बधां दुःख हुं समाधि वगर पाम्यो; हवे मारा अंतरमां समता प्रगटी छे, हवे मने
मृत्युराजनो भय नथी, ए तो नवुं सुखदायक शरीर (स्वर्ग) आपनार छे. माटे मृत्युपर्यंत जप–
तप करवा योग्य छे; जप–तप वगर आ जगतमां कोई कल्याण पामतुं नथी.
(२४) स्वर्ग–सम्पदा तपसों पावै, तपसों कर्म नसावै,
तप ही सों शिव–कामिनिपति हूवै, यासों तप चित्त लावै.
अब में जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई,
मात–पिता सुत–बांधव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई.
स्वर्गसंपदा तप वडे पमाय छे अने तप वडे ज कर्मनो नाश थाय छे; तपथी ज मोक्षसुख
पमाय छे, माटे तपमां चित्तने जोडवुं. हवे में जाणी लीधुं छे के, समता वगर बीजुं कोई मने
सहायक नथी; माता–पिता–पुत्र–बंधुजनो–स्त्री ते बधांनो मोह दुःखदायी छे.
(२प) मृत्यु समयमें मोह करे ये, तातें आरत हो है,
आरततें गति नीची पावै, यों लख मोह तज्यो है.
और परिग्रह जेते जगमें, तिनसों प्रीत न कीजै,
परभवमें ये संग न चालै, नाहक आरत कीजै.
मृत्युसमये तेनो मोह करतां आर्त्तध्यान थाय छे, अने आर्त्तध्यानथी जीव नीची गति
पामे छे, –एम समजीने में बधानो मोह छोड्यो छे. जगतमां बीजो पण जे परिग्रह छे तेनो मोह
न करवो, केमके ते कांई परभावमां जीवनी साथे आवता नथी, तो नाहक आर्त्तध्यान शुं करवुं?