Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 24 of 49

background image
: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : २१ :
या तनसों ईस क्षेत्र–संबंधी, कारन आन बन्यो है,
खान–पान दे याको पोस्यो, अब समभाव ठन्यो है.
रोग–शोक वगेरेनुं जे वेदन छे ते बधुं पुद्गलना संबंधथी छे; हुं चेतन छुं, मारो स्वभाव
तो सदाय व्याधि वगरनो छे. आ भव पूरतो आ शरीर साथे संबंध थयो छे, तेने खवडावी–
पिवडावीने अत्यार सुधी पोष्युं; हवे समाधिमरण माटे मने समभाव जाग्यो छे.
(२०) मिथ्यादर्शन, आत्म–ज्ञान बिन, यह तन अपनो जान्यो,
ईन्द्री–भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछान्यो.
तन बिनसनतें नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई,
कुटुम्ब आदिको अपनो जान्यो, भूल अनादी छाई.
आत्माना ज्ञान वगर मिथ्यादर्शनथी में आ शरीरने मारुं जाण्युं, ईन्द्रियभोगोमां में सुख
मान्युं पण आत्मानुं स्वरूप न जाण्युं. शरीरनो नाश थतां मारो ज नाश समजीने अज्ञानथी हुं
दुःखी थयो; कुटुंब वगेरेने में मारां मान्यां;–आम अनादिथी में भूल करी.
(२१) अब निज भेद जथारथ समझो, मैं हूं जोति–सरूपी,
ऊपजै–बिनसै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी.
ईष्टऽनिष्ट जेते सुख–दुख हैं, सो सब पुद्गल सागैं,
मैं जब अपनो रूप विचारुं, तब ये सब दुख भागैं.
हवे हुं मारुं साचुं स्वरूप समज्यो; हुं ज्ञानस्वरूपी छुं, अने संयोग–वियोग थाय छे ते
पुद्गल छे, तेने हुं रूपी जाणुं छुं. जे कांई ईष्ट–अनिष्ट सुख–दुःख छे ते बधुं पुद्गलना संबंधथी
छे; पण ज्यां हुं मारुं स्वरूप विचारुं छुं त्यां ते बधां दुःख भागी जाय छे.
(२२) बिन समता तनऽनन्त धरे मैं, तिनमें ये दुख पायो,
शस्त्रघाततेंऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो.
बार अनंत हि अग्नि माहिं जर, मूवो सुमति न लायो,
सिंह व्याघ्र अहिऽनन्त बार मुझ, नाना दुःख दिखायो.
समता वगर में अनंत शरीर धारण कर्यां ने तेमां अनेक दुःख पाम्यो;–