Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २० : “आत्मधर्म” : प्र. वैशाख २४९८ :
(१६) चौ आराधन सहित प्रान अज, तौ ये पदवी पावो,
हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग–मुक्तिमें जावो.
मृत्यु–कल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मंझारे,
ताको पाय कलेस करो मत, जन्म–जवाहर हारे.
जो सम्यक्त्वादि चार आराधना सहित प्राण छोडशो तो बळदेव–चक्रवर्ती–ईन्द्र–
तीर्थंकर वगेरे पदवी पामशो ने स्वर्ग–मुक्तिमां जशो. आ रीते मृत्युरूपी कल्पवृक्ष समान
बीजो कोई त्रण लोकमां दाता नथी; माटे तेने पामीने कलेश न करो. कलेशथी तो आ
जन्मरूपी झवेरात हारी जवाय छे.
(१७) ईस तनमें क्या राचै जियरा, दिन–दिन जीरन होहै,
तेज कान्ति–बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है.
पांचों ईन्द्री शिथिल भई अब, सांस शुद्ध नहिं आवे,
तापर भी ममता नहि छोडे, समता उर नहिं लावै.
अरे जीव! आ शरीरमां तुं केम राची रह्यो छे?–ए तो रोजेरोज जीर्ण थतुं जाय छे, तेनी
कांति अने बळ पण सदा घटी रह्यां छे, एना जेवुं अस्थिर बीजुं कोई नथी. हवे तो पांचे
ईन्द्रियो शिथिल थई गईने श्वास पण सरखो लेवातो नथी; अरे! तोपण तुं तेनी ममता केम
छोडतो नथी? अने अंतरमां समताने केम धारतो नथी?
(१८) मृत्युराज उपकारी जियको, तनसों तोहि छुडावै,
नातर या तन बन्दीगृहमैं, पडौ–पडौ बिललावै.
पुद्गलके
परमानू मिलकें, पिण्डरूप तन भासी,
ये तो मूरत मैं हुं अमूरत, ज्ञान–जोति गुन खासी.
अहा, मृत्युराज तो जीवना उपकारी छे के एने शरीरथी छोडावे छे. एना वगर तो
आ शरीररूपी बंदीखानामां पड्यो–पड्यो जीव वलखां मारे छे. पुद्गल–परमाणुओ भेगा
थईने आ शरीररूप पिंडलो बन्यो छे ते तो मूर्त छे, ने हुं तो ज्ञानज्योतिरूप खास
गुणवाळो अमूर्त आत्मा छुं.
(१९) रोग–शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे,
मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे.