: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : १९ :
भूख–तृषा दुख आदि अनेकन, ईस ही तनमें गाढै,
मृत्यु–राज अब आय दयाकर, तन पिंजरसों काढे.
महा दुःखदायक कर्म मारुं वेरी छे, तेना संगथी जीव दुःख पामे छे, ने तेणे मने आ
देहपींजरामां पूर्यो छे; तेमांथी मने कोण छोडावे? आ देहमां तो भूख–तरस वगेरे केटलांय दुःख
भर्यां छे; हवे मृत्युराज दया करीने आ देहपींजराथी मने छोडाववा आव्या छे.
(१३) नाना वस्त्राभूषण मैंने, ईस तनको पहराये,
गन्ध सुगन्धित अतर लगाये, षट्रस अशन कराये.
रात दिना मैं दास होयकर, सेव करी तन केरी,
सो तन मेरे काम न आयो, भूल रह्यो निधि मेरी.
में आ शरीरने अनेक वस्त्राभूषण पहेराव्यां, सुगंधित अत्तर लगाव्यां, षटरस भोजन
कराव्यां; रात–दिवस दास थईने शरीरनी सेवा करी, तोपण अरेरे! ए शरीर मने मारा
आत्महित माटे काम न आव्युं, ने हुं मारा निधिने भूली रह्यो.
(१४) मृत्यु–रायको सरन पाय, तन नूतन एसो पाऊं,
जामे सम्यकरतन तीन लहि, आठों कर्म खपाउं.
देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहि सुन्यो जगमाही;
मृत्युसमयमें ये ही परिजन, सबही हैं दुखदाई.
देखो, शरीर समान कृतघ्नी जगतमां बीजुं कोई सांभळ्युं नथी; मृत्यु समये आ परिजन
वगेरे बधानो मोह तो दुःख देनार छे. हवे मृत्युराजनुं शरण पामीने हुं नवीन शरीर एवुं
पामीश के जेमां सम्यक् रत्नत्रय प्रगट करीने, आठे कर्मने खपावीश.
(१प) यह सब मोह बढावनहारे, जियको दूरगति दाता,
ईनसे मोह निवारो जियरा, जो चाहो सुख–साता.
मृत्यु–कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो ईच्छा जेती,
समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पति तेती.
आ बधां शरीर–परिजन वगेरे तो मोह वधारनारा ने दुर्गंति देनारा छे, माटे हे
जीवडा! जो तुं सुख–शांति चाहतो हो तो तेनो मोह छोड. आ मृत्युरूपी कल्पवृक्षने पामीने हे
सुज्ञ! तारी जेटली ईच्छा होय तेटलुं माग;–जो तुं समतापूर्वक मरण करीश तो तारी ईच्छित
संपदा तने मळशे.