: १८ : “आत्मधर्म” : प्र. वैशाख २४९८ :
उपर चामडी लपेटी छे पण अंदर तो विष्टा भरी छे. आवा अत्यंत दुर्गंधी अपवित्र
शरीरमां मूरख जीव प्रीति वधारे छे. पण देह तो विनाशिक छे; जीव अविनाशी नित्यस्वरूप छे.
(९) यह तन जीर्ण कुटी सम आतम, यातैं प्रीति न कीजै,
नूतन महल मिलै जब भाई, तब यामें क्या छीजे?
मृत्यु होनसे हानि कौन है, याको भय मत लावो,
समतासे जो देह तजोगे, तो शुभ तन तुम पावो.
अरे आत्मा! जीर्ण झूंपडी जेवा आ शरीरमां प्रीति न कर. आ देह–झूंपडी छोडीने स्वर्गमां
जतां तने नवो महेल मळशे, –तो मरणथी तारे शुं गुमाववानुं छे? मृत्यु थतां तने कांई हानि
नथी माटे मरणनो भय न कर. जो समताथी शरीर छोडीश तो तुं देवलोकना उत्तम शरीरने
पामीश.
(१०) मृत्यु–मित्र उपकारी तेरो, ईस अवसरके माहीं.
जीरन तनसे देत नयो यह, या सम साहू नाहीं.
या सेती ईस मृत्युसमय पर, उत्सव ही अति कीजै,
कलेश–भावको त्याग सयाने, समता–भाव धरीजै.
अरे, मृत्यु तो मित्रसमान तारुं उपकारी छे, –केमके मरणना अवसरे ते जीर्ण शरीरने
बदले नवुं शरीर आपे छे. –एना जेवुं भलुं बीजुं शुं? माटे हे भव्य! आवा मरणसमये तो तुं
कहान उत्सव करजे; हे सूज्ञ! कलेशभावने छोडीने समता–भावने धारण करजे.
(११) जो तुम पूरव पुण्य किये हैं तिनको फल सुखदाई,
मृत्यु–मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग–सम्पदा भाई.
राग–रोषको छोड सयाने, सात व्यसन दुखदाई,
अन्तसमयमें समता धारो, पर–भव–पंथ सहाई.
हे भाई! पूर्वे तमे जे पुण्य कर्यां छे तेना सुखदाय फळरूप स्वर्गसंपदा, मृत्युरूपी मित्र
वगर बीजुं कोण पमाडशे? माटे हे भव्य! मरणसमयमां राग–द्वेष तथा दुःखदायक सात
व्यसनोने छोडीने समता धारण करो–के जे परभवमां पण सहाय करशे.
(१२) कर्म महादुठ वैरी मेरो, ता सेती दुख पावै,
तन–पिंजरमें बन्ध कि््यो मोहि यासों कौन छुडावै.