: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : १७ :
(प) काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कु–मरन हि कीनो,
एक बारहू ‘सम्यक्’ युत मैं, निज–आतम नहिं चीनो.
जो निज–परको ज्ञान होय तो, मरन समय दुःख कांई,
देह विनाशी, मैं निज–भासी, ज्योति–सरूप सदाई.
अनादिकाळथी संसारमां भमतां में सदाय कुमरण ज कर्यां, एकवार पण सम्यक्त्व प्रगट
करीने मारा आत्माने में न जाण्यो, जो स्व–परनुं भेदज्ञान होय तो मरणसमये दुःख केवुं? –
केमके, देह तो विनाशी छे ने हुं चैतन्य–प्रकाशक ज्योति–स्वरूप अविनाशी छुं.
(६) विषय–कषानके वश हूवैकैं, देह आपनो जान्यो,
कर मिथ्या सरधान हिये बिच, आतम नाहिं पिछान्यो.
यों कलेश हिय धार मरन करि, चारों गति भरमायो,
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चरन ये, हिरदेमें नहिं लायो.
अरेरे, विषय–कषायोने वश थईने में देहने पोतानो मान्यो; मिथ्या श्रद्धा करीने अंतरना
आत्माने में न ओळख्यो. ए प्रमाणे अंतरमां कलेशसहित मरीने हुं चारेगतिमां भटक्यो, पण
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने में हृदयमां धारण न कर्यां.
(७) अब यह अरज करूं प्रभु सुनिये, मरन समय यह मांगौं,
रोगजनित पीडा मत होवो, अरु कषाय मत जागौ.
ये मुझ मरन समय दुखदाता, ईन हर, साता कीजै,
जो समाधियुत मरन होय मुझ, अरु मिथ्या गद छीजै.
हे प्रभो! मारी अरज सांभळो! मरण समये रोगजनित पीडा तरफ लक्ष न जाय अने
दुःखदायक कषायो न जागे; दुःखदायक कषायो दूर थाय ने चित्त शांत थाय, जेथी मने
समाधिसहित मरण थाय ने मिथ्यात्वादिनो छेद थाय.––आवी आराधना हे नाथ! मने प्राप्त हो.
(८) यह तन सात कुधात–मयी है, देखत ही घिन आवै;
चर्म–लपेटी उपर सोहे, भीतर विष्टा पावै.
अति दुर्गन्ध अपावन सा यह मूरख प्रीति बढावै,
देह विनासी, जिय अविनासी, नित्य–सरूप कहावै.
आ शरीर तो, जेने देखतां ज घृणा आवे एवी सात कुधातुथी भरेलुं छे;