: १६ : “आत्मधर्म” : प्र. वैशाख २४९८ :
(१) वंदूं श्रीअरहंत परमगुरु, जो सबको सुखदाई,
ईस जगमें दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई;
अब मैं अरज करूं प्रभु तुमसे कर समाधि उरमांही,
अन्तसमय में यह वर मांगूं, सो दीजै जग–राई.
सर्वे जीवोने सुखदायक एवा श्री अरिहंतदेवने नमस्कार करुं छुं. आ संसारमां में जे दुःख
भोगव्यां ते हे जिनदेव! आप जाणो छो; हवे हुं आपनी समक्ष प्रार्थना करुं छुं के अंतसमये पण
मारा अंतरमां समाधि रहे, एवुं वरदान आपो.
(२) भव–भवमें तन धार नये मैं भव–भव शुभ संग पायो,
भव–भवमें नृपसिद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो.
भव–भवमें तन पुरुष–तनो धर, नारी हू तन लीनो,
भव–भवमें मैं भयो नपुंसक, आतमगुन नहिं चीनो.
संसारमां भमतां भवे–भवे में नवां–नवां शरीर धारण कर्यां, शुभ–संगति पण पाम्यो,
राज्यऋद्धि पण मळी, माता–पिता–पुत्र थयो, अनेकवार पुरुषदेह धारण कर्यां, स्त्री पण
अनेकवार थयो, नपुंसक पण थयो; बधुं मळ्युं पण मारा आत्मगुणने में न ओळख्या.
(३) भव–भवमें सुर–पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे,
भव–भवमें गति नरकतनी धर, दुख पाये विधियोगे.
भव–भवमें तिरयंच योनि धर, पायो दुख अतिभारी,
भव–भवमें साधर्मी जनको, संग मिल्यो हितकारी.
अनेक भवमां सुरपदवी पाम्यो अने देवलोकनां घणां सुख भोगव्यां, अनेकवार नरकमां
जईने पापवश महादुःख पाम्यो, अनेकवार तिर्यंचगति धारण करीने अतिभारे दुःख पाम्यो;
अरे! साधर्मीजनोनो हितकारी संग पण मने अनेकवार मळ्यो...
(४) भव–भवमें जिन–पूजन कीनी, दान सुपात्रहि दीनो,
भव–भवमें मैं समवसरनमें, देख्यो जिन गुनभीनो.
एती वस्तु मिली भव–भवमें, ‘सम्यक्’ गुन नहिं पायो,
ना समाधि–युत मरन कि््यो मैं, तातैं जग भरमायो.
वळी भवभवमां में जिनपूजा करी, सुपात्रदान पण दीधां, अने समवसरणमां गुणभीना
जिननाथने अनेकवार देख्या; आटली वस्तु तो मने भवोभवमां मळी, पण सम्यक्त्वगुण हुं कदी
न पाम्यो, अने समाधिसहित मरण में न कर्युं, तेथी हुं संसारमां भम्यो.