Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : १३ :
अनंतकाळथी संसारमां रखडतो आत्मा पोतानुं साचुं स्वरूप समज्यो नथी.
देहथी भिन्न आत्मा हुं कोण छुं–एम जे ओळखे तेने साचो मनुष्य कहेवाय. बाकी बे
हाथ–बे पग–बे आंख वगेरेथी कांई मनुष्यपणुं खरेखर कहेवाय नहि, केमके बे हाथ, बे
पग वगेरे तो वांदराने पण छे–ते उपरांत एने तो एक लांबुं पूंछडुं पण छे.
मनुष्यपणानी विशेषता तो विवेकमां छे. विवेक एटले स्व–परनुं भेदज्ञान; आत्मा शुं
ने भिन्न चीज शुं? तेने ओळखीने विवेक करवो जोईए. १६ वर्षे श्रीमद् राजचंद्र कहे छे
के आत्मा कोण छे अने तेनुं खरुं स्वरूप शुं छे तेनो हे जीव! तुं विचार कर. हंस एने
कहेवाय के जेनी चांचमां दूध अने पाणीने जुदा करवानी शक्ति छे; जेनी चांचमां दूध
अने पाणीने जुदा करवानी शक्ति न होय तेने हंस कही शकाय नहीं. एवी रीते जेना
ज्ञानमां राग अने ज्ञानने जुदा पाडवानी ताकात छे ते ज खरो चैतन्यहंस छे; ते ज
विवेकी छे.
जेम हंस तो साचा मोतीना चारा चरनारो छे. कागडानी नजर मांस उपर छे,
ते साचा मोतीने छोडीने मांसने ग्रहण करे छे. लडाईमां मोटा हाथीनां मस्तक छेदाईने
पड्या होय तेमां तो मुक्ताफळना मोती अने मांसना लोचा बंने छे, पण कागडो तो
मोतीने छोडीने मांसने ग्रहण करे छे, ने हंसलो तो साचा मोतीना चारा चरनारो छे.
तेम आत्मामां साचा मोती जेवो शुद्धचैतन्यस्वभाव, अने रागादि विकारभावो होवा
छतां, ज्ञानी तो तेमां विवेक रागरहित चैतन्यस्वभावने ग्रहण करीने तेनो स्वाद ल्ये
छे; अने अज्ञानी तो रागादि साथे भेळसेळवाळो आत्मा अनुभवे छे.
चैतन्यतत्त्व एवुं महान–गंभीर छे के रागमां–विकल्पमां तेने जीरवी शकाय
[खानपुरमां प्रवचन अने भक्ति बाद गुरुदेव पुन: रखियाल पधार्या हता. ने
बीजे दिवसे सवारमां तलोद शहेर पधार्या हता.]