चैतन्यना सुंदर रूपवाळो, ‘भाव–सार’ सारभूत जेनो स्वभाव छे–एवो आत्मा
पोताने भूलीने, हुं रागी–हुं द्वेषी–हुं शरीरवाळो–एम मानीने अज्ञानथी गुंगा जेवा
पुण्य–पापना स्वादमां रोकाई गयो, ए तेने शोभतुं नथी. जीवनुं पद ते नथी. जीवनुं
पद कयुं छे? ते बतावतां समयसार गा. २०३ मां कहे छे के–
निजपद छे. पण ज्ञानस्वभावथी जुदा, अने क्षणिक, विकारी भावो छे तेओ पोते
अस्थिर छे, ते आत्मानुं निजपद नथी. आम जाणीने हे जीव! तुं त्वराथी निजपदने
ग्रहण कर ने परपदने छोड. परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं चैतन्यमात्र भावरूप तारुं
निजपद ज आस्वादवा जेवुं छे. विकारनो स्वाद अनंत काळथी लीधो, तेमां जीवने शांति
न मळी. पाप हो के पुण्य, तेना फळमां नरक हो के स्वर्ग, तेमां क््यांय आत्मानी शांति
नथी, ते कोई आत्मानुं निजपद नथी. निजपदनो स्वाद तो आनंद रूप होय.
छे तेने छोडीने तुं रागना मेला भावोना वेदनमां क््यां रोकाणो? अरे, चैतन्यप्रभु
पुण्य–पापनी विकृत लागणीमां अर्पाई जाय–ए तेने शोभतुं नथी. कयां चैतन्यनुं
अनुपम पद! ने क््यां रागादिना कलंकभावो! अरे, ए बंनेने एकता केम होय? चैतन्य
हुं’ एवा अनुभवने बदले ‘क्रोध हुं–राग–हुं पुण्य हुं’ एम अनुभव करे, ए ते कांई
आत्माने शोभे छे! –नथी शोभतुं. माटे हे भाई! एक ज्ञाननुं ज बनेलुं तारुं परम पद
छे, तेमां कोई विपदा नथी. ए निजपद पासे बीजा बधा परपद तो अपद भासे छे.
आवा ज्ञानपदनो अनुभव ते मोक्षनो उपाय छे.
जैनतरोनो उल्लास सारो हतो. प्रवचनमां गुरुदेवे सुगमशैलिथी आत्मानुं स्वरूप
समजाव्युं हतुं. प्रवचन बाद भक्ति पण खानपुरमां थई हती.