Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
उमराळाना सुंदरजी रूपा भावसारने गुंगानो स्वाद लेवानी टेव पडी गई हती, तेम
चैतन्यना सुंदर रूपवाळो, ‘भाव–सार’ सारभूत जेनो स्वभाव छे–एवो आत्मा
पोताने भूलीने, हुं रागी–हुं द्वेषी–हुं शरीरवाळो–एम मानीने अज्ञानथी गुंगा जेवा
पुण्य–पापना स्वादमां रोकाई गयो, ए तेने शोभतुं नथी. जीवनुं पद ते नथी. जीवनुं
पद कयुं छे? ते बतावतां समयसार गा. २०३ मां कहे छे के–
जगतमां जे घणा प्रकारना द्रव्यो अने भावो छे तेमां भगवान आत्माना
चैतन्यस्वभाव साथे एकपणे जे अनुभवाय छे ते ज आत्मानुं स्थिर रहेठाण होवाथी
निजपद छे. पण ज्ञानस्वभावथी जुदा, अने क्षणिक, विकारी भावो छे तेओ पोते
अस्थिर छे, ते आत्मानुं निजपद नथी. आम जाणीने हे जीव! तुं त्वराथी निजपदने
ग्रहण कर ने परपदने छोड. परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं चैतन्यमात्र भावरूप तारुं
निजपद ज आस्वादवा जेवुं छे. विकारनो स्वाद अनंत काळथी लीधो, तेमां जीवने शांति
न मळी. पाप हो के पुण्य, तेना फळमां नरक हो के स्वर्ग, तेमां क््यांय आत्मानी शांति
नथी, ते कोई आत्मानुं निजपद नथी. निजपदनो स्वाद तो आनंद रूप होय.
भाई! तारा आत्मानो स्वाद तो ज्ञानयम छे. ज्ञानरसपणे आत्माने स्वादमां
ले. ते तारुं निदपद छे.... ते ज आनंददायक छे. आनंदना भावथी भरेलुं तारुं निजपद
छे तेने छोडीने तुं रागना मेला भावोना वेदनमां क््यां रोकाणो? अरे, चैतन्यप्रभु
पुण्य–पापनी विकृत लागणीमां अर्पाई जाय–ए तेने शोभतुं नथी. कयां चैतन्यनुं
अनुपम पद! ने क््यां रागादिना कलंकभावो! अरे, ए बंनेने एकता केम होय? चैतन्य
हुं’ एवा अनुभवने बदले ‘क्रोध हुं–राग–हुं पुण्य हुं’ एम अनुभव करे, ए ते कांई
आत्माने शोभे छे! –नथी शोभतुं. माटे हे भाई! एक ज्ञाननुं ज बनेलुं तारुं परम पद
छे, तेमां कोई विपदा नथी. ए निजपद पासे बीजा बधा परपद तो अपद भासे छे.
आवा ज्ञानपदनो अनुभव ते मोक्षनो उपाय छे.
* * *
[वैशाख सुद सातमनुं बपोरनुं प्रवचन रखियालथी त्रण–चार माईल दूर
खानपुर मुकामे थयुं हतुं. खानपुरमां दि. जैनमंदिर छे. गुरुदेव पधारतां गामना जैन–
जैनतरोनो उल्लास सारो हतो. प्रवचनमां गुरुदेवे सुगमशैलिथी आत्मानुं स्वरूप
समजाव्युं हतुं. प्रवचन बाद भक्ति पण खानपुरमां थई हती.
]