Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ११ :
मोढा पर दुर्गंधना लपेटा शोभे नहि तेम सत् एवा चैतन्य उपर रागना लपेटा शोभे
नहि; चैतन्यमां रागनुं कर्तृत्व होय नहि. आवी भिन्नताने जे जाणे ते ज्ञानीजीव
पोताना चैतन्यभावमां रागना कोई अंशने भेळवतो नथी, एटले ज्ञानमां रागनुं
कतृत्व जरापण नथी. आवा आत्माना ज्ञान वगर, पुण्य करीने पण जीव जराय सुख
न पाम्यो. क््यांथी पामे? पुण्यना रागमां क््यां सुख हतुं के मळे? सुख चैतन्य
स्वभावमां छे, तेने जाणे–अनुभवे तो ज चैतन्यसुखनो स्वाद आवे, ने त्यारे ज
रागादिनुं कर्तृत्व छूटी जाय. आवी जेनी दशा थई छे ते ज सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी छे.
जे रागनो कर्ता थशे ते, राग वगरना चैतन्यनो स्वाद लई शकशे नहि. अने
रागथी भिन्न चैतन्य स्वाद जेणे चाख्यो ते कदी रागनो कर्ता थशे नहि. एक सूक्ष्म
विकल्पना स्वादने पण ते ज्ञानथी भिन्न ज जाणे छे. तेथी कह्युं छे के–
करे करम सोई करतारा, जो जाने सो जाननहारा;
जाने सो करता नहि होई, कर्ता सो जाने नहीं कोई.
चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने ज्ञानरूपे जे परिणम्यो तेना ज्ञान–परिणमनमां
रागनुं कर्तृत्व नथी; जे रागनो कर्ता थाय छे ते रागथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपने
जाणतो नथी.
आत्मा अनादि–अनंत चैतन्यरसपणे ज अनुभवाय छे; जगतना बीजा बधाय
रसथी विलक्षण जुदी जातनो आ चैतन्यरस छे. रागादि कषायोना रस तो कडवा छे,
आकुळतावाळा छे ने आ चैतन्यरस अत्यंत मधुर छे, शांत छे, निराकुळ छे. आम
ज्ञानी पोताना चैतन्यस्वादने बीजाथी भिन्न पाडीने वेदे छे. अहा! आवो शांत मधुर
आनंदधाम मारो चैतन्य स्वाद! पूर्वे कदी में चाख्यो न हतो, तेथी हुं दुःखी हतो.
आत्माना आनंदरसनो स्वाद चाखीने हवे हुं सुखी थयो.
“सुखीया जगतमां संत......” समकिती पोताना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ल्ये
छे, त्यां दुनिया पासेथी तेने कांई लेवुं नथी, क््यांय बीजामांथी सुख लेवुं नथी, ते संत
जगतमां सुखी छे. बाकी परवस्तुमांथी सुख लेवा मांगे छे तेओ तो दुःखिया छे ने पर
पासेथी भीख मांगनारा भीखारी छे. समकिती पोताना चैतन्यवैभवनो स्वामी मोटो
बादशाह छे, जगतथी ते निस्पृह छे. मारुं चैतन्यसुख मारामां छे, त्यां जगत पासेथी
मारे कांई लेवापणुं नथी.
अज्ञानीने पोताना चैतन्यरसने भूलीने रागना रसनी टेव पडी गई छे. जेम