नहि; चैतन्यमां रागनुं कर्तृत्व होय नहि. आवी भिन्नताने जे जाणे ते ज्ञानीजीव
पोताना चैतन्यभावमां रागना कोई अंशने भेळवतो नथी, एटले ज्ञानमां रागनुं
कतृत्व जरापण नथी. आवा आत्माना ज्ञान वगर, पुण्य करीने पण जीव जराय सुख
न पाम्यो. क््यांथी पामे? पुण्यना रागमां क््यां सुख हतुं के मळे? सुख चैतन्य
स्वभावमां छे, तेने जाणे–अनुभवे तो ज चैतन्यसुखनो स्वाद आवे, ने त्यारे ज
रागादिनुं कर्तृत्व छूटी जाय. आवी जेनी दशा थई छे ते ज सम्यग्द्रष्टि ज्ञानी छे.
विकल्पना स्वादने पण ते ज्ञानथी भिन्न ज जाणे छे. तेथी कह्युं छे के–
जाने सो करता नहि होई, कर्ता सो जाने नहीं कोई.
जाणतो नथी.
आकुळतावाळा छे ने आ चैतन्यरस अत्यंत मधुर छे, शांत छे, निराकुळ छे. आम
ज्ञानी पोताना चैतन्यस्वादने बीजाथी भिन्न पाडीने वेदे छे. अहा! आवो शांत मधुर
आनंदधाम मारो चैतन्य स्वाद! पूर्वे कदी में चाख्यो न हतो, तेथी हुं दुःखी हतो.
आत्माना आनंदरसनो स्वाद चाखीने हवे हुं सुखी थयो.
जगतमां सुखी छे. बाकी परवस्तुमांथी सुख लेवा मांगे छे तेओ तो दुःखिया छे ने पर
पासेथी भीख मांगनारा भीखारी छे. समकिती पोताना चैतन्यवैभवनो स्वामी मोटो
बादशाह छे, जगतथी ते निस्पृह छे. मारुं चैतन्यसुख मारामां छे, त्यां जगत पासेथी
मारे कांई लेवापणुं नथी.