Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
कुंदकुंदचार्यदेव सीमंधर परमात्मा पासे जईने जे सन्देशो लाव्या छे ते आ
समयसारमां छे, ते अहीं कहेवाय छे. आत्माने संतोए ‘भगवान’ कहीने संबोध्यो छे!
भगवान! तुं तो अनंत ज्ञान ने अनंत आनंदस्वरूप महान छो. तुं कांई रागादि
जेटलो नथी, रागनुं कर्तृत्व ते तारुं स्वरूप नथी; तारा चैतन्यकिरणमांथी राग नथी
नीकळतो. राग वगरनो एकला चैतन्यकिरणोथी प्रकाशमान ज्ञानसूर्य तुं छो. चैतन्यने
अने रागने एकपणुं कदी नथी, एटले कर्ताकर्मपणुं पण कदी नथी. आवुं भेदज्ञान थतां
ज रागनुं कर्तृत्व छूटीने, चैतन्यनो रागवगरनो अत्यंत मधुर स्वाद जीवने अनुभवमां
आवे छे. सम्यग्द्रष्टिने ज आवो स्वाद आवे छे; ने चैतन्यना आ अत्यंत मधुर स्वाद
पासे आखा जगतना विषयो नीरस लागे छे; चैतन्यनी शांति पासे रागनी आकुळता
तो धगधगता अग्नि जेवी लागे छे.
अरे, चैतन्यवैभवसंपन्न आत्मा, तेने रागवाळो मानीने जीव भवदुःखमां
रखडे छे. अमृतचंद्रस्वामी पुरुषार्थसिद्धि उपायमां कहे छे के–
एवमयं कर्मकृतैः भावैः असमाहितोपि, युक्त इव प्रतिभाति बालिशानां,
प्रतिभासः स खलु भवबीजम्। –ए रीते आ आत्मा कर्मकृत (शरीर तथा रागादि)
भावोथी असंयुक्त होवा छतां, बालिश (अज्ञानी) जीवोने ते रागादिथी संयुक्त जेवो
भासे छे; तेमनो आ मिथ्या प्रतिभास ज खरेखर भवनुं बीज छे.
रागनो कषायवाळो स्वाद, अने चैतन्यनो अत्यंत मधुर निराकुळ स्वाद, ए
बंनेना तफावतने न जाणतां अज्ञानी तेने एकमेक ज अनुभवे छे एटले एकला विकारी
स्वादने ज अनुभवे छे; तेथी ते ते अज्ञानभावे विकल्पने ज करे छे. ज्यारे भेदज्ञानवडे
रागथी भिन्न पोताना अनादिनिधन अतीन्द्रिय मधुर चैतन्यस्वादने जाणे छे त्यारे
ज्ञानथी जुदा एवा कषायरसने ते पोताथी अत्यंत भिन्न जाणे छे, एटले तेनो
(विकल्पनो) ते कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञानवडे ज विकल्पनुं कर्तृत्व छूटे छे.
अरे, हुं कोण छुं ने मारुं खरूं स्वरूप शुं छे? शेमां मारुं हित छे ने शा कारणे हुं
दुःखी थयो? एनो हे जीव! तुं विचार तो कर. तारा चैतन्यतत्त्वने बीजानो संबंध नथी,
ने रागनोय संबंध खरेखर तेने नथी. आवा भिन्न चैतन्यतत्त्वनुं तुं देख, तेमां
आनंदनो स्वाद छे.
अहो, चैतन्यतत्त्व आवुं सुंदर, परम आनंदरसथी भरेलुं, तेमां रागनी
आकुळता केम शोभे? चैतन्यभावने राग साथे एकता केम होय? जेम सज्जनना