Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : १५ :
प्रवचन सांभळीने सौ प्रसन्नताथी डोली ऊठता हता.
संसारमां बीजी गति करतां दुर्लभ एवुं आ मनुष्यपणुं पामीने, चैतन्य स्वरूप
पोतानो आत्मा शुं चीज छे तेने जे ओळखे छे तेनुं ज मनुष्यपणुं सफळ छे. एना
वगरनुं जे मनुष्यपणुं तेमां ने पशुमां कांई फेर नथी. पशुओ पण पोतानुं जीवन
विषय–कषायोमां वीतावे छे, ने मनुष्य थईने पण विषय–कषायमां ज जीवन वीतावे
तो तेमां फेर शुं रह्यो? अरे, पुण्य–पापथी पार मारुं अंदरनुं तत्त्व शुं छे के जे मने शांति
ने आनंद आपे! एम विचार करवो जोईए. पुण्य–पाप अनंतवार कर्यां छतां तेमां
जीवने शांतिनो अंश पण न मळ्‌यो. ते पुण्य–पापना कर्तृत्व वगरनुं मारुं चैतन्यतत्त्व
छे–के जेनो स्वाद अत्यंत मधुर चैतन्यरसथी भरेलो छे. पुण्य पापना आकुळ स्वादथी
मारा चैतन्यनो स्वाद तद्न जुदी जातनो छे. पुण्य–पापना झांझवां अनंत काळ दोडया
पण तेमांथी शांति न मळी. अंदर शांतरसथी भरेलुं चैतन्य सरोवर–तेमां उपयोगने
जोडतां अणमूली शांति ने ईंद्रियातीत आनंद मळशे.
भाई, दुनिया दुनियानुं जाणे....... तुं तारुं करी ले. आवो मनुष्यभव पामीने
तारा चैतन्यना श्रद्धा–ज्ञान तो कर, के मारी शांति मारा आत्मामां ज भरी छे; मारो
आत्मा राग–द्धेष वगरनो परम शांतिस्वरूप ज छे. अमूल्य सुंगधी कस्तुरी पोतानी
डूंटीमां होवा छता, जराक अवाजथी भडकता हरणियांने पोतानी कस्तुरीनो विश्वास
आवतो नथी ने बहार शोधीने हेरान थाय छे. तेम राग वगरनी अतीन्द्रिय शांतिनो
समुद्र आत्मा पोते छे, पण जराक पुण्यनो शुभराग करे त्यां में घणुं कर्युं एम माननारा
अज्ञानी जीवने, रागथी ने पुण्यथी पार पोताना गंभीर चैतन्य स्वभावना
अनंतसुखनो विश्वास नथी आवतो, ने बहारमां–रागमां सुख मानीने तेनी पाछळ
दोडी–दोडीने दुःखी थाय छे. अनादिकाळथी राग पाछळ ने पुण्य पाछळ दोडयो पण
शांतिनो छांटोय न मळ्‌यो. क््यांथी मळे? मृगजल जेवा विषयोमां ने रागादिभावोमां
शांतिना जळ क््यांथी मळे? अंदर ज्यां शांतिनुं सरोवर भर्युं छे तेमां नजर करे तो
अपूर्व शांतिनो स्वाद आवे, ने पुण्य–पापनुं कर्तृत्व छूटी जाय. तेने भान थाय के अरे!
मारा चैतन्यनो स्वाद तो रागथी तद्न जुदी जातनो छे. अमृत अने झेर जेवो तफावत
ज्ञान रागना स्वाद वच्चे छे. चैतन्यना स्वादमां रागनो आकुळ स्वाद केवो? ने रागना
स्वादमां चैतन्यनी शांतिनो स्वाद केवो? बंनेना स्वाद तद्न जुदा छे. आवुं भेदज्ञान
करनार जीव चैतन्यना ज स्वादने वेदतो थको, रागने पोताथी भिन्न जाणीने तेनुं
कर्तृत्व सर्वथा छोडे छे, ने अंदर तेने चैतन्यना अपूर्व आनंदरसनी धारा वहे छे.
‘अहा! गुरुए मने आनंदरसना प्याला पाया”