Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
जीवने पोताना चैतन्यस्वभावनुं ज्ञान थतां ते रागादि समस्त परभावनो
अकर्ता थई जाय छे, केमके रागथी अत्यंत जुदो चैतन्यस्वाद तेणे चाखी लीधो; अहा,
चैतन्यना अत्यंत मधुर आनंदमय महा स्वाद पासे जगतना बधा स्वाद अत्यंत नीरस
छे, रागादि भावो कषायेला–आकुळ रसवाळा छे तेनो स्वाद धर्मी लेतो नथी; धर्मीनुं
ज्ञान शांतरसमय छे–ते आकुळतानो स्वाद लई शके नहि. धर्मी पोताना मधुर
वीतरागी चैतन्यस्वादने ज ल्ये छे –तेने ज आत्मामां अनुभवे छे. शरीरनी रचना ए
तो मृतककलेवर जड अचेतन छे, तेने जीव भोगवे नहि; रागनो स्वाद अग्निनी भठ्ठी
जेवी आकुळतारूप छे, ते स्वादने ज्ञानी पोताना ज्ञानथी भिन्न जाणे छे; ने राग
वगरना पोताना परम शांतरसना स्वादने ल्ये छे; आवो जीव ज्ञानी छे, ते धर्मी छे, ते
मोक्षमार्गी छे. अहा, चैतन्यपद जे अनंत शांतिरूप, ते हुं ज छुं एम धर्मी अनुभवे छे.
आवा शांतरसना वेदनमां कषायभावो समाई शके नहि, तेनाथी भिन्न शांतरसने ज
ज्ञानी सदा पोताना स्वादपणे अनुभवे छे.
अरे भाई! चैतन्यनो स्वाद, अने कषायोनो स्वाद, ए बे स्वाद वच्चेना भेदने
तुं ओळख तो खरो! एक हंस जेवुं प्राणी पण दूध अने पाणीने जुदा पाडीने दूधनो
स्वाद ल्ये छे, तो तुं चैतन्यनो शांत–वीतरागी आनंद स्वाद, अने रागादि
कषायभावोनो अशांत–विकारी–दुःखमय स्वाद, ए बंने स्वादनी जुदाई करीने तारा
चैतन्यस्वादने ग्रहण कर. पुण्य–पापना झेरी स्वादने लीधे अत्यंत काळथी तुं संसारमां
दुःखी थयो; हवे तेनाथी भिन्न तारी चैतन्यजातने जाणीने तेना अमृतनो स्वाद ले.
धर्मीजीव पोताना चैतन्यस्वादना अनुभवथी एम जाणे छे के मारा
चैतन्यभावने रागनी के दुःखनी साथे कारण–कार्यपणुं नथी, तेनी साथे स्व–स्वामीपणुं
नथी. तारुं चैतन्यवीर्य एवुं नथी के रागनी रचना करे. चैतन्यभावना स्वीकारमां
आत्मानी अनंत शक्तिनुं निर्मळ परिणमन शरू थई गयुं छे. एकला चैतन्यस्वादमां
आत्माना अनंतगुणनो निर्मळ–वीतरागी–शांतरस भेगो ज छे; आवा अत्यंत मधुर
चैतन्यस्वादवाळो आत्मा छे तेने ओळखतां आत्मा रागादि परभावनो अकर्ता थईने,
आस्रवोने छोडीने, मुक्त थाय छे. (तलोद प्रवचन समाप्त)
तलोदनी तत्त्वचर्चा
संसार एटले शुं?
आत्मानो मिथ्यात्वभाव अने रागद्वेष ते संसार छे. तेमां पण रागादिभाव
जेटलो