: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : १७ :
ज हुं–एवो जे मिथ्याभाव छे ते ज मुख्य संसार छे.
आत्मा अने कर्मनी भेगी अवस्था ते संसार छे?
ना; आत्मानी अवस्थामां आत्मामां छे, कर्मनी अवस्था पुद्गलमां छे, बंनेनी
अवस्था जुदेजुदी छे, बंनेनी भेगी एक अवस्था नथी.
स्त्री–छोकरा–घरबार छोडतां संसार छूटी जाय ने?
ना; ए तो परद्रव्य छूटा ज छे; ते मारा–एवी मान्यता ते संसारनुं मूळ छे. ए
मान्यता छूटया वगर संसार छूटे नहि. परथी छूटो ने रागादि वगरनो
चैतन्यस्वभाव केवो छे तेने लक्षमां लईने अनुवभ करतां सम्यकत्वादि थाय छे
एटले अज्ञान छूटी जाय छे, ने रागादिथी पण आत्मानो चैतन्यभाव छूटो पडी
जाय छे. आ ज संसार छोडवानी ने मोक्षमार्गने ग्रहण करवानी रीत छे.
सम्यक्त्वपूर्वकनी मुनिदशानो परम महिमा
साधुपणुं केवुं होय?
अहो, साधुपणुं तो अंदरनी अलौकिक वीतरागदशा छे. सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान उपरांत वीतरागी चारित्र प्रगट्युं छे, त्रण प्रकारना कषायो छूटी
गया छे, आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनी घणी दशामां झुले छे; देह उपर वस्त्रादिनी
वृत्ति नथी, संपूर्ण दिगंबर छे, जेओ उद्ष्टि आहार लेता नथी, क्षणेक्षणे जेमने
निर्विकल्पता थया करे छे. आवा भगवान मोक्षमार्गी मुनिवरो छे. अहो, एवा
मुनिओनां चरणमां नमस्कार होय. ए तो पंचपरमेष्ठीपदमां बिराजमान
भगवान छे.
अरे, मुनिदशाना महिमानी जगतने खबर नथी. साधु ए तो जगतमां
हालता–चालता सिद्ध छे. अहा, आवा साधुने कोण न माने? साधु तो परमेष्ठी
भगवान छे, एने कोण न गमे? पण आवा साधु न देखाय तेथी कांई गमे तेने
साधु न मानी लेवाय. कुसाधुने साधु मानवाथी तो साचा साधुओनो अनादार
थई जाय छे. माटे साधु–मुनिराजनुं यथार्थ स्वरूप ओळखीने भक्ति पूर्वक तेमने
मानवा जोईए.
रागथी भिन्न चैतन्यवस्तु शुं चीज छे–एना भान वगर एकला शुभ–
रागथी आवुं साधुंपणु थई जाय–एम नथी. साधुपणुं तो सम्यग्दर्शन उपरांत
चारित्रनी घणी वीतरागीदशामां थाय छे. आवा साधुपणा वगर मोक्ष सधतो
नथी.