Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
सोनासणमां चैतन्यस्वादनी सोनेरी वात
तलोदथी सवारमां जिनमंदिरमां दर्शन करीने सोनासण आवतां वच्चे प्रांतिज
शहेरमां जिनमंदिरमां भावभावही जिनभगवंतोनां दर्शन कर्यां. अहीं जमीनमांथी
अनेक प्राचीन कळासंपन्न खड्गासन सुंदर जिनबिंबो नीकळ्‌या छे, तेमनी
वीतरागरसझरती मुद्रा दर्शनीय छे. प्रातिजथी सोनासण आव्या. शांत–ग्राम्य
वातावरणमां गुरुदेव घणो समय स्वाध्यायमग्न रहेता. प्रवचनमां समयसारनी ९७ मी
गाथा उपरनो कळश प७ मो वंचायो हतो. अज्ञाननो स्वाद अने ज्ञाननो स्वाद–ए बे
वच्चे केवो मोटो तफावत छे ते एमां समजाव्युं हतुं.
जीव पोते ज्ञानस्वरूप छे. पोते ज्ञानस्वरूप होवा छतां, जाणे के रागनो स्वाद ए
ज पोते होय–एम अज्ञानथी जीव पोताने रागरूपे अनुभवे छे. धर्मी तो ज्ञानवडे
हंसनी माफक विवेक करीने रागथी भिन्न ज्ञाननो स्वाद ल्ये छे. आवो चैतन्यस्वाद
लेनार धर्मी रागादि कोई भावने कदी पोतापणे करतो नथी. रागादिने पोतना चैतन्य
भावथी तद्न जुदा ज जाणे छे.
अरे जीव! चैतन्यस्वादवाळा तारा आत्माने जाण्या विना अनंतकाळथी शुभ–
अशुभ रागना स्वादने ज पोतानो मानीने तुं चारगतिमां रखडयो. शुभरागथी व्रतादि
करीने, ते रागने पोतानुं स्वरूप मानीने, तेने धर्म मानीने पण तुं संसारमां ज रखडयो,
सुख तो लेशमात्र तुं न पाम्यो. रागथी जुदी जातना चैतन्यस्वादने जाण्यावगर सुख के
धर्म थाय नहि. अरे, चैतन्यनी शांति अने सुखनो स्वाद केवी अचिंत्य चीज छे–ए जीव
कदी लक्षमां लीधुं न हतुं. ज्यां ज्ञान थयुं ने चैतन्यनो अत्यंत मधुर वीतरागी शांतरस
चाख्यो, त्यां धर्मीने हवे रागादिनो विकृत स्वाद स्वप्ने पण पोतानो भासतो नथी. ,
एटले तेनुं ज्ञान रागादिनुं कर्ता पण नथी ने भोक्ता पण नथी; तेनुं ज्ञान तो अत्यंत
मधुर चैतन्यना आनंदरसने ज भोगवनारुं छे. आवा आनंद भोगवनारुं सम्यग्दर्शन
अपूर्व चीज छे. एना वगर जीवने कदी साचो आनंद आवे नहि. लाखो–करोडोमां
कोईकने प्राप्त थाय एवी दुर्लभ आ वस्तु छे. दुर्लभ छे–पण छतां जीवनो स्वभाव छे,
जे जीव करवा धारे ते करी शके छे. अत्यारे पण एवा स्वादनुं वेदन करनारा जीवो छे.
जेम शीखंडना रसमां गुद्व थई गयेलो लोलूपी जीव ते शीखंडमां दहींना खाटा
अने साकरना मीठा स्वादने जुदा जाणतो नथी, तेम रागना रसमां लीन थयेलो