* श्रावकनी धर्मद्रढता *
तं देश तं नरं तत्स्वं तत्कर्माण्यपि नाश्रयेत्।
मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम्।।
पोताना सम्यक्त्वादि धर्मनी जेमां रक्षा न थाय,
सम्यक्त्वमां के व्रतमां मलिनतानुं कारण होय, एवा
देशनो, एवा पुरुषोनो के एवा धनवैभव वगेरेनो संबंध
धर्मी जीव छोडी दे छे. समान प्रतिकूळता करे तोपण धर्मी
जीव पोतानी श्रद्धाथी डगे नहि. जेमां श्रद्धा वगेरेने दोष
लागे तेवा धनने पण धर्मी जीव छोडे छे. भले प्रतिकूळता
हो, धर्म क््यां एना आधारे छे? धर्मी जीव पोताना धर्मथी
कदी डगे नहि. नरकनी घोर प्रतिकूळता वच्चे धर्मीजीव
अंतरनी चैतन्यद्रष्टिने टकावी राखे छे माता–पिता–भाई–
बेन गमे ते हो, पण धर्ममां जे प्रतिकूळता करे एनो
आश्रय धर्मीजीव लेतो नथी. एवा मनुष्योनो संग ते छोडे
छे. करोडो रूपिया मळता होय पण धर्मीजीव पोतानी
श्रद्धाने ढीली करे नहि. कोई वार एम बने के सामा कहे के
अमारा घरे आवीने तारे तारो धर्म नहि पळाय, अमारो
धर्म पाळवो पडशे–तो आवा पुरुषना के स्त्रीना संगने
धर्मीजीव छोडी दे छे. पोताना धर्मनी रक्षामां धर्मीजीव
तत्पर छे, तेमां दुनियानो साथ रहे के न रहे तेनी परवा
धर्मी जीव करतो नथी. कोई अनार्य देश ज्यां खोराकनी
शुद्धी जळवाय नहि, ज्यां देव–गुरु मळे नहि, जैन धर्म मळे
नहि–एवा कुक्षेत्रमां लाखो–करोडो रूा. नी कमाणी थती होय
तोपण धर्मीजीव एवा क्षेत्रने, एवा मनुष्योना संगने,
एवा वेपारने तथा एवा बधा कार्योने छोडी दे छे, ने
पोताना श्रद्धा वगेरे धर्मो जेम पुष्ट थाय तेम करे छे.
(फत्तेपुर: पद्मनंदी श्रावकाचार–प्रवचनोमांथी)