Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ३९ :
प९ एक आत्मामां धर्मो अनंत छे, ते बधा धर्मो भिन्नभिन्न स्वादवाळा–भिन्न–
भिन्न लक्षवाळा छे; अभेद एक आत्मानी अनुभूतिमां बधा धर्मोनो स्वाद
किंचित एकमेक अनुभवाय छे. अभेद आत्मानी अनुभूतिमां आत्माना बधाय
धर्मो समाई जाय छे. त्यां कोई भेद रहेता नथी के ‘आ ज्ञान, आ दर्शन, आ
आनंद. ’ माटे ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेद ज्ञानीने नथी. सम्यग्दर्शन आवा
आत्मानी अनुभूति छे.
६० अहा, ज्यां आत्मानी आवी अनुभूति थई ने ज्ञान सर्वे विकल्पोथी छुटुं थईने
परिणम्युं, त्यां बारअंग वगेरेनुं जाणपणुं हो के न हो. एवो कोई नियम नथी
के सम्यग्द्रष्टिने बारअंगनुं ज्ञान होयज. आखोय ज्ञाननो पिंड पोते ज छे–ते
ज्यां अनुभवमां आवी गयो त्यां शास्त्रज्ञानना विकल्पो तो क्यांय रही गया.
६१ एकला शास्त्रनुं भणतर करतां करतां अनुभूति थई जाय–एम नथी. शास्त्रोमां
संतोए जे स्वभाव कह्यो छे ते स्वभावनी सन्मुख थईने जेणे अनुभव कर्यो ते
जीव तरी गयो, अंतरमां भगवानना भेटा एने थई गया. साची आत्मविद्या
तेने आवडी गई.
६२ अहा, आवा अनुभवनी तो शी वात! अनुभवनी आवी वात सांभळवा मळवी
ते पण कोई महान भाग्य छे. अरे जीव! संतो तने भगवान कहीने बोलावे छे.
तारुं स्वरूप भगवान एटले महिमावंत छे–के जेनी सन्मुख थतां अनंतगुणनो
समुद्र आनंदना हीलोळे चडे छे.
६३ आवा आनंदनी अनुभूतिमां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे कोई भेदना विकल्पो
नथी. ज्ञानी पोताना ज्ञानभावमां विकल्पने आवता देता नथी एटले विकल्प
साथे तेने कर्ता–कर्मपणुं नथी. भाई, तारा उपयोगनी दिशाने एकवार आवा
स्वभाव तरफ फेरवी नांख.
६४ ‘चांपो’ विकारना द्रश्यने देखी न शक््यो ने आंख फेरवी नांखी. –एनी मा
शरमाईने बळी गई. ते द्रष्टांते अहीं चैतन्यरूपी चांपो, विकार तरफनी द्रष्टि
फेरवीने पोताना स्वभावनी सन्मुख थाय छे. पण आवी वीतरागदशारूपी
चांपा रागादि विकारमां न पाके, ए तो चैतन्यना स्वभावना सेवनथी ज पाके.
चांपा जयां–त्यां न पाके ए तो एनी खानदान मातानी कुंखे ज पाके. तीर्थंकर
तो एनी मातानी कुंखे ज अवतरे, एवी माता कांई घरेघरे न होय. तेम
पुण्यमां ने भेदना विकल्पमां