ज पाके. अभेद आत्मस्वभावमां द्रष्टि करे ने सम्यक्त्वरूप आनंदपुत्रनो
अवतार न थाय एम बने नहि. आवी द्रष्टि वगर शुभरागना बीजा लाख–
करोड–अनंत उपाय करे तोपण सम्यग्दर्शन थाय नहि.
उपासना दान–स्वाध्याय वगेरे होय छे. पण तेमां जे राग छे तेने ते धर्मी
पोताना चैतन्यभावमां जराय आववा देतो नथी.; रागने अने चैतन्यभावने
जुदे जुदा राखे छे.
न पाम्यो, मंद राग पण कांई सुख नथी, रागमात्र दुःख ज छे. सुख रागथी
भिन्न चैतन्यनी शांतिमां ज छे. चैतन्यना अनुभव विना ए सुख कदी प्रगटे
नहि.
सिद्ध’ (नो सिद्ध) कहीने सिद्धभगवंतोनी नातमां लीधा छे. अमृतचंद्राचार्ये
तत्त्वार्थ सारमां ए वात करी छे. (श्लोक २३४) नोसिद्ध एटले ईषत् सिद्ध
अर्थात् नानकडा सिद्ध. सम्यग्दर्शन थतां जीव अल्पकाळमां सिद्धपद पामे छे.
आ अपूर्व मंगळद्वारा सिद्ध भगवंतोने नमस्कार कर्यो छे. अनंत सिद्व
भगवंतोने लक्षमां लईने तेमनुं सन्मान करतां, बहुमान करतां तेमने आत्मामां
स्थापीने नमस्कार करतां, रागथी हटीने पोताना शुद्धआत्मा उपर लक्ष जाय छे,
एटले स्वसन्मुखता थतां भेदज्ञानरूपी बीज ऊगे छे, अने पछी तेमां एकाग्रता
वडे केवळज्ञाननी पूर्णिमां ऊगे छे. आ रीते बीज ऊगीने आत्मा पूर्णताने पामे
ते अपूर्व मंगळ छे.