Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 42 of 64

background image
: ४० : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
कांई चैतन्यदशाना चांपा न पाके, ए तो चिदानन्द एकरूप स्वभावना सेवनथी
ज पाके. अभेद आत्मस्वभावमां द्रष्टि करे ने सम्यक्त्वरूप आनंदपुत्रनो
अवतार न थाय एम बने नहि. आवी द्रष्टि वगर शुभरागना बीजा लाख–
करोड–अनंत उपाय करे तोपण सम्यग्दर्शन थाय नहि.
६प सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थ–श्रावक अंतरमां आत्मानी उपासना वडे आनंदनो स्वाद ल्ये.
छे; पण ते भूमिकामां हजी राग बाकी छे, तेथी व्यवहारमां देव–गुरुनी पूजा
उपासना दान–स्वाध्याय वगेरे होय छे. पण तेमां जे राग छे तेने ते धर्मी
पोताना चैतन्यभावमां जराय आववा देतो नथी.; रागने अने चैतन्यभावने
जुदे जुदा राखे छे.
६६ नवा ग्रैवेयक सुधीना भोग जेनाथी मळे एवा पुण्य जीवे अनंतवार कर्यां, पण
रागना ज वेदनमां ऊभो रह्यो एटले बहिरात्मा ज रह्यो, तेथी किंचित सुख ते
न पाम्यो, मंद राग पण कांई सुख नथी, रागमात्र दुःख ज छे. सुख रागथी
भिन्न चैतन्यनी शांतिमां ज छे. चैतन्यना अनुभव विना ए सुख कदी प्रगटे
नहि.
६७ अहा, सम्यग्द्रष्टिने ‘ईषत सिद्ध’ नानकडा सिद्ध कह्या छे. मुनि तो पंचपरमेष्ठीमां
भळी गया–एना महिमानी तो शी वात! पण सम्यग्द्रष्टि अव्रतीनेय ‘ईषत
सिद्ध’ (नो सिद्ध) कहीने सिद्धभगवंतोनी नातमां लीधा छे. अमृतचंद्राचार्ये
तत्त्वार्थ सारमां ए वात करी छे. (श्लोक २३४) नोसिद्ध एटले ईषत् सिद्ध
अर्थात् नानकडा सिद्ध. सम्यग्दर्शन थतां जीव अल्पकाळमां सिद्धपद पामे छे.
६८ वैशाख सुद बीजनी सवारमां, बीज अने पूनमनी वच्चे बेठेला गुरुदेवे अत्यंत
धीर–गंभीर ध्वनिथी मंगळ संभळावतां कह्युं के– (समयसारनी पहेली गाथा):
आ अपूर्व मंगळद्वारा सिद्ध भगवंतोने नमस्कार कर्यो छे. अनंत सिद्व
भगवंतोने लक्षमां लईने तेमनुं सन्मान करतां, बहुमान करतां तेमने आत्मामां
स्थापीने नमस्कार करतां, रागथी हटीने पोताना शुद्धआत्मा उपर लक्ष जाय छे,
एटले स्वसन्मुखता थतां भेदज्ञानरूपी बीज ऊगे छे, अने पछी तेमां एकाग्रता
वडे केवळज्ञाननी पूर्णिमां ऊगे छे. आ रीते बीज ऊगीने आत्मा पूर्णताने पामे
ते अपूर्व मंगळ छे.
(वैशाख सुद बीजनुं प्रवचन आ अंकमां जुदुं आप्युं छे.)