Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ४१ :
६९ जे भेदज्ञान छे ते आस्रवोथी निवृत्त छे, एटले शुं? शुं त्यां राग थतो ज नहि
होय? एम नथी; रागादि थाय छतां ज्ञान तेनाथी जुदुं ने जुदुं ज रहे छे. ज्ञान
ज्ञानपणे ज रहे छे, ने आस्रवना कोई अंशने पोतामां आववा देतुं नथी. माटे
ते ज्ञान आस्रवोथी छूटेलुं ज छे.
७० ज्ञान कदी रागादिभावोमां पोतापणे वर्ते नहि, ने रागादिमां जे पोतापणे वर्ते
तेने ज्ञान कहेवाय नहि.
७१ रागनो कोई अंश जेने गमे छे तेने ज्ञाननो प्रेम नथी अने तेनुं ज्ञान रागथी
छूटयुं नथी. राग अने ज्ञान वच्चे अत्यंत जुदाई जे जाणे छे ते ज्ञान सदा
ज्ञानपणे वर्ते छे, रागमां कदी तन्मय थतुं नथी.
७२ संसारमां संसरणरूप जे क्रिया छे ते क्रिया परमधर्मना फळमां मळती नथी, माटे
‘परमधर्म’ निष्फळ छे. अज्ञानीनी अज्ञानक्रिया सफळ छे, केमके तेना फळमां
संसार परिभ्रमण थाय छे. (प्रवचनसार गा. ११६)
७३ आत्मज्ञान वीतरागी छे, तेना फळमां मोक्षसुख अने परमआनंद प्रगटे छे, ते
अपेक्षाए ते सफळ छे. अने अज्ञानीनी शुभक्रियाओ कदी मोक्षफळ आपती नथी
माटे ते निष्फळ छे.
७४ रागनी रुचिवाळाने ज्ञाननो वीतरागी स्वाद आवतो नथी. जेम भमरो फूलनी
सुगंध लेवा गयो पण नाकमां दुर्गंधनी गोळी राखीने गयो, तेने फूलनी सुगंध
क््यांथी आवे? तेम जीव धर्म करवा मांगे छे, सुखी थवा मांगे छे, पोताना
अंतरमां ते सुख भर्युं छे, पण अंतरमां रागनी ने पुण्यनी रुचि राखीने सुखनो
स्वाद आवी शके नहि. एकवार ज्ञानमांथी बधा रागनी रुचि काढी नांख,
ज्ञानथी रागने सर्वथा जुदो पाड, तो ज ज्ञानना अतीन्द्रियसुखनो स्वाद तने
आवशे.
७प रागथी भिन्न चैतन्यना स्वाद वगरनो जीव नवमी ग्रैवेयक सुधी जाय के
निगोदमां होय–ते बधा जीवो रागादिनो ज स्वाद लई रह्या छे; रागथी भिन्न
चैतन्य तत्त्वने जे जाणतो नथी एने राग वगरना सुखनो स्वाद क््यांथी आवे?
७६ पुण्य करीने अज्ञानी जीव विमानवासी देव थाय तोपण तेथी कांई ते सुखी थई
जतो नथी, सम्यग्दर्शन वगर त्यां पण ते दुःखी ज छे. छहढाळमां कह्युं छे के–