: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ६१ :
* धर्मी *
* धर्मी जाणे छे के जैनधर्म एटले एकली वीतरागतानो
मार्ग. परम आनंदनी प्राप्तिनो आ मार्ग
वीतरागताथी ज शोभे छे. ते मार्गे हुं जई रह्यो छुं.
* धर्मीने पोतानो रत्नत्रयधर्म अतिशय वहालो छे.
* धर्मीजाणे छे के मारा गुण मारामां छे, मारी
अनुभूतिमां मारो आत्मा प्रसिद्ध थयो छे. ते
आत्माना स्वसंवेदनमां परम निःशंकता छे.
* धर्मीनुं धर्मीपणुं पोताना आत्मामांथी ज आव्युं छे, ते
कांई जगत पासेथी नथी आव्युं; तेथी जगत प्रत्ये
धर्मी उदास छे, ने निजगुणोमां निःशंक छे.
* धर्मी कहे छे के अत्यारे तो आत्माना आनंदने
साधवानो अवसर आव्यो छे. हे जीव! आनंदना
आवा अवसरने तुं चूकीश मा.
* अमने आत्मा मळतो नथी–एम कोई कहे तो –धर्मी
कहे छे के अरे भाई! आत्मा ज्यां छे त्यां तुं गोततो
ज नथी तो पछी ते क््यांथी जडे? आत्मा कांई
शरीरमां के रागमां नथी; आत्मा तो ज्ञानभावमां छे;
अंतर्मुख थईने ज्ञानभावमां शोध तो तने आत्मा
जरूर मळशे, एटले के स्वयं अनुभवमां आवशे.
परभावमां शोध्ये आत्मा नहीं जडे.
* धर्मीए चेतनालक्षण द्धारा आत्मप्राप्ति करी छे.