पंच परमेष्ठीनो प्रसाद
पंचपरमेष्ठीना आत्मामां परम आनंदनी छोळो
उछळे छे. ए पंचपरमेष्ठीने ओळखीने नमस्कार करतां
आत्माना भावमां पवित्रता प्रगटे छे..... आनंद थाय
छे...... मंगळ थाय छे. ए पंचपरमेष्ठीनो प्रसाद छे.
पंचपरमेष्ठीना प्रसादथी सम्यक्त्वादि थतां
चैतन्य–सुखडी चाखी ने भवनी भूखडी भांगी.
अहा, चैतन्यसुखना अनुभवनी शी वात! एवो
अनुभव पंचपरमेष्ठी प्रभुना मार्गे परमा य छे.
साधकने स्वरूपना एक विकल्पथी जे पुण्य बंधाय
ए पुण्य जगतने विस्मय पमाडे, तो एना निर्विकल्प
साधकभावना महिमानी शी वात! ते पंचरमेष्ठीना
प्रसादथी पमाय छे.
वीतराग प्रभुनो वीरमार्ग ए शूरवीरनो मार्ग छे.
अहा, आवो वीतरागमार्ग साधवो ए तो वीरनां काम
छे, ए कायरनां काम नथी. वीर तो तेने कहेवाय के जे
रागनां बंधन तोडीने मोक्षमार्गने साधे.
प्रकाशक: (सौराष्ट्र) प्रत: ३०००
मुद्रक: मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) : द्धितीय वैशाख (३४३)