Atmadharma magazine - Ank 344
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 42 of 55

background image
: जेठ : २४९८ आत्मधर्म : ३३ :
* मृत्यु एटले
आराधनानो महोत्सव *
(समाधिमरण प्रसंगे आराधकनी शूरवीरता)
‘मृत्यु’ नुं नाम सांभळतां ज लोको डरी जाय छे. परंतु मृत्यु
ए खरेखर कोई भयजनक वस्तु नथी; चैतन्यना साधक जीवने मृत्यु
प्रसंगे ए तो आराधनानी शूरवीरतानो अने समाधिना महोत्सवनो
प्रसंग छे. आव प्रसंगे धर्मात्माना परिणाममां आराधनानो केवो
उत्साह होय छे तेनुं आ वर्णन छे. आ काव्यनो पहेलो भाग
आत्मधमृ अंक ३४२ अ मां आपेल छे. बाकीनो भाग अहीं आप्यो
छे. तेमां, आत्मसाधनामां शूरवीर मुनिवरोनां द्रष्टांत आपीने
मुमुक्षुने आराधनानो उल्लास जगाडे छे.
(३१) धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसी धीरज धारी,
एक स्यालिनी जुग बच्चा–जुत, पांच भाख्यो दुःखकारी;
यह उपसर्ग रह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी.
तौ तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु–महोत्सव भारी.
अहा, धन्य छे ते सुकुमार महामुनि;–तेमणे केवी अद्भूत धीरज राखी! बे बच्चां
सहित एक शियाळीए तेमनो पग खाधो. आवा दुःखकर महा उपसर्गने पणस्थिरतापूर्वक
सहन करीने तेमणे अखंड आराधनाने चित्तमां धारण करी. तो अरेजीव! तने तो शुं दुःख
छे? तुं मृत्युने मोटो उत्साह समजीने तारुं चित्त आराधनामां जोड.
(३२) धन्य धन्य सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो,
तौ भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतमसों हित लायो.
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित्त धारी.
तौ तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्य–महोत्सव भारी.
धन्य छे ते सुकोलश–मुनिराज! जेनी माता मरीने वाघण थयेली ते वाघणे
तेमनुं शरीर खाधुं, तोपण ते मुनिराज जराय डग्या नहि ने आत्मानुं हित साध्युं.