: ४२ : आत्मधर्म : जेठ : २४९८
नक्की थयुं छे. आपणने प्रयत्न करीए के भगवान महावीरना अढीहजारमा निर्वाकल्याणक
महोत्सवमां सुधीमां भारतमां अढीहजार नवी पाठशाळाओ खुल्ली जाय अने वीरनां
संतानो वीरमार्गने जाणीने, वीरप्रभुना अमूल्य वीतरागनिधानने प्राप्त करे.
सर्वज्ञनी स्तुति एटले भेदज्ञान
सर्वज्ञनी स्तुति एटले स्वभावनी आराधना; पोताना ज्ञानस्वभावनी जेटली
आराधना करी तेटली सर्वज्ञभगवाननी स्तुति थई.
जड द्रव्येन्द्रिय, परज्ञेय तरफ झुकनारी भावेन्द्रिय, अने बाह्य पदार्थो–तेमों एकत्व
बुद्धि करीने अटकनार जीव पोताना एक अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावने आराधी शकतो नथी.
ईंन्द्रियादिथी भिन्न ज्ञानस्वभावने ते श्रद्धा–ज्ञानमां लई शकतो नथी, ते तो रागना ज
सेवनमां रोकायेलो कहे छे, एटले वीतराग सर्वज्ञनी खरी स्तुति तेने थती नथी.
‘भगवान ज्ञानस्वभाव’ ते आत्मा छे; आवा अतीन्द्रिय, प्रत्यक्ष प्रकाशमान
भगवान ज्ञानस्वभावी आत्माने स्वसंवेदनथी ज्यारे अनुभवमां लीधो त्यारे जड–
ईन्द्रियो भावेन्द्रियो ने बाह्य विषयो ते बधायने पोतथी जुदा जाणीने जीती लीधा
एटले जितेन्द्रयपणुं थयुं. आ सर्वज्ञदेवनी परमार्थ स्तुति छे.
सर्वज्ञनी निश्चयस्तुति सर्वज्ञनी सामे जोवाथी थती नथी, पण आत्मानी सामे
जोवाथी सर्वज्ञनी निश्चयस्तुति थाय छे. अहो! जैनसिद्धांतनी खूबी आचार्यदेव आ
गाथामां भरी दीधी छे.
सर्वज्ञनी खरी स्तुति स्वाश्रये थाय छे, पराश्रये थती नथी. वीतरागनी स्तुति
वीतरागताना अंश वडे थाय, राग वडे न थाय. स्व–चैतन्यतत्त्वनो आश्रय चूकीने
बहारमां सर्वज्ञ तरफना एकला पराश्रयमां जे अटक्यो छे ते खरेखर ईद्रिय–विषयमां
ज अटक्योछे, अतीन्द्रिय–परमसूक्ष्म एवा सर्वज्ञस्वभावनो स्वीकार तेने थयो नथी
एटले सर्वज्ञनी साची स्तुति तेने आवडती नथी.
देहथी भिन्न अंतरमां परम सूक्ष्म जे चैतन्यस्वभाव, तेनी पूर्ण दशा ते केवळज्ञान;
एवा केवळज्ञानीनी स्तुति देह साथे एकता राखीने थई शके नहि. अंतरमां पोतामां
अतीन्द्रिय स्वभावना अनुभव वडे ज सर्वज्ञनी थाय छे. आवी स्तुति ते मोक्ष कारण छे.
(समयसार गाथा ३१ ना प्रवचनमांथी)