Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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:३८: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
नमो कुंभकर्ण–देवाय!
जी हा! अमे कुंभकर्णने नमस्कार क्यं.
शुं तमने आश्चर्य थयुं?–तो सांभळो:– रावणनो भाई कुंभकर्ण ए कांई छ मास सुधी
ऊंघतो न हतो, एने जगाडवा छाती पर हाथी चलाववा पडता न हता; जागीने ए पाडा खाई
जतो न हतो. अरे, ए तो वीतराग मोक्षमार्गना उपासक एक अहिंसक महात्मा हता, ने ते ज
भवे मुनि थई, केवळज्ञान पामी, बडवानी–चूलगिरि परथी मोक्ष पाम्या छे. आपणे एमने
सिद्धभगवान तरीके पूजीए छीए......तेथी ज अमे लख्युं के ‘नमो कुंभकर्ण–देवाय.’
बोलो कुंभकर्ण भगवान की जे.
रात्रे पण प्रकाश–
नेमनाथ प्रभुना जमानानी वात छे.
एक वखत एवुं बन्युं के सूर्यास्त थतां आखा सौराष्ट्रमां रात पडी पण एक ठेकाणे रात
न पडी; त्यां तो प्रकाश ज रह्यो! तो एम केम बन्युं? ते शोधी काढो. जवाब आवता अंकमां
वांचो.
एक वृक्ष–
एक ‘वृक्ष’ छे.....सुंदर फळ पण आपे छे, छतां ते वनस्पतिकाय नथी, तेमज देव–
अधिष्ठित पण नथी... तो ए वृक्ष कयुं?
रत्नत्रयरूपी वृक्ष छे ते मोक्षरूपी सुंदर फळ आपनारुं छे ए तो खरूं. पण अहीं जे वृक्षनुं
पूछयुं छे ते एवुं छे के अज्ञानी जीवोने पण फळ आपे छे. तमे पण एनां फळ घणीवार चाखी
लीधां हशे!
“आत्मभावना” भेटपुस्तक पृ: ३प८ मां लाईन ६–७ मां भूल छे, ते नीचे मुजब
सुधारीने वांचवुं–“ज्ञानी–विवेकी–अंतरात्मा तो शरीर अने ईंद्रियोथी पार अतीन्द्रिय
चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां एकाग्र थईने परमपदने पामे छे; (प्रीन्टींगनी आ भूल
प्रत्ये ध्यान खेंचवा बदल गोरेगांवना मनसुखभाई तथा हेंमत गांधीनो आभार.)